________________ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा [227 नियडि' आदि शब्दों के विशेषार्थ-नियडि-निकृति--एक कपट को छिपाने के लिए किया जाने वाला दूसरा कपट / प्रथम कपट है--सुरापान, दूसरा है-झूठ बोल कर उसे छिपाना / सुडिया-शौण्डिका --मद्यपान-सम्बन्धी आसक्ति / अगुणप्पेही-अगुणप्रेक्षी-दोषदर्शी, प्रमादादि दोषों में लीन / अवगुणों को धारण करने वाला-सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र, क्षमा प्राज्ञापालन आदि गुणों की उपेक्षा करने वाला / आयरिए नाराहेइ प्राचार्य और रत्नाधिक श्रमणों की आराधना-अर्थात्विनय, वैयावृत्य आदि द्वारा प्रसन्न नहीं कर पाता / अणेगसाहुपूइयं अनेक साधुओं द्वारा पूजित प्रशंसित या पाचरित-सेवित / अनेक का अर्थ है-इहलौकिक तथा पारलौकिक / विउलं प्रसंजत्तंविपुल का अर्थ है--विशाल, अर्थात् मोक्ष अथवा विस्तीर्ण अक्षय निर्वाण रूप अर्थ से संयुक्त / एलमूयगं—मेमने की तरह मैं-मैं करने वाला, भेड का बच्चा / (2) एडमूल-अज-बकरे की तरह अनुकरण करने वाला / 4. तवतेणे प्रादि शब्दों की व्याख्या-तपःस्तेन तप का चोर / किसी का मासक्षमण आदि लम्बी तपस्या करने वालों का-सा कृश शरीर देखकर कोई पूछे—वह दीर्घ तपस्वी पाप ही हैं ?" इसके उत्तर में पूजा-सत्कार पाने के लिए वह कहे कि साधु तो दीर्घ तप करते ही हैं / यह तप:स्तेन है। वचनस्तेन-वाणी का चोर / अर्थात् किसी धर्मकथाकारसदृश या वादी के समान दीखने वाले से कोई पूछे कि पाप हो वह धर्मकथाकार हैं ? तब वह पूजा-सत्कारार्थी साधु कहे-हाँ, मैं ही हूँ, या कहे--साधु ही तो धर्मकथाकार या वादी होते हैं। यह वचनस्तेन है। रूपस्तेन--(रूप का चोर). जैसे प्रवजित राजपुत्रादि के समान किसी को देख कर कोई पूछे-आप ही वे राजकुमार हैं, जो वहाँ प्रवजित हुए थे ? तब हाँ कहे। यह रूपस्तेन है। पर के ज्ञानादि पांच प्राचारों को अपने में आरोपित करने या बताने वाला आचारस्तेन है, जैसे—क्या वे प्रसिद्ध क्रियापात्र आप ही हैं ? उत्तर में हाँ कहे, अथवा कहे-साधु तो क्रियापात्र होते ही हैं / यह भावस्तेन है / किन्हीं गीतार्थ मुनिवर से सूत्रार्थ-विषयक सन्देहनिवारण होने पर कहे यह तो मुझे पहले से ही मालूम था, अापने कोई नयी बात नहीं बतलाई / यह भी भावचोर है।' आयरिए नाराहेइ इत्यादि-प्रस्तुत गाथा में मद्यपायी साधु की इहलौकिक दुर्गति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह प्राचार्यों को पाराधना नहीं कर सकता। इसका प्राशय यह है कि मद्यपान के कारण सदैव कलुषित भाव बने रहने के कारण वह प्राचार्यों की सेवा, विनय, भक्ति एवं आज्ञापालन से आराधना-उपासना नहीं कर पाता, न वह रत्नाधिक या सहवर्ती श्रमणों की भी सेवाशुश्रूषा या विनय भक्ति से प्राराधना कर पाता है / ऐसे मद्यपायी, अनाचारी मायावी एवं मृषावादी मुनि के प्रति गृहस्थों की भी श्रद्धा-भक्ति समाप्त हो 4.. (क) विउलं अट्ठसंजुत्त नाम विपुलं विसालं भण्णति, सो मोक्खो। (ख) विपुलं विस्तीर्ण विपुलमोक्षावहत्वात् अर्थसंयुक्त तुच्छतादिपरिहारेण निरुपमसुखरूपमोक्षसाधनत्वात् / __ --हारि. वृत्ति, पत्र 189 (ग) दशवं. (आचार्य श्री आत्मारामजी), पृ. 298 41. (क) जिनदासचूणि, पृ. 204 : 'तत्थ तवतेणो णाम .. ......."सोऊण गेण्हइ / ' (ख) दशवै. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 302-303 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org