________________ पंचम अध्ययन : पिण्डेषणा 213 234. तहा कोलमणुस्सिन्नं+ वेलुयं कासवनालियं / तिलपप्पडगं नीमं आमगं परिवज्जए // 21 // 235. तहेव चाउलं पिट्ठ वियर्ड वा तत्तनिव्वुडं / तिलपिट्ठ पूइपिन्नागं आमगं परिवज्जए // 22 // 236. कविट्ठ माउलिंगं च मूलगं मूलगत्तियं / आमं असत्थपरिणयं मणसा वि न पत्थए // 23 // 237. तहेव फलमंथूणि बीयमंथू णि जाणिया। बिहेलगं पियालं च प्रामगं परिवज्जए / // 24 // [227-228] (यदि कोई दाता) उत्पल, पद्म, कुमुद या मालती अथवा अन्य किसी सचित्त पुष्प का छेदन करके (भिक्षा) दे तो वह भक्त-पान संयमी साधु-साध्वियों के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए (साधु या साध्वी) देती हुई उस दात्री स्त्री को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार-पानी मेरे लिए ग्राह्य नहीं है / / 14-15 / / / [229-230] (यदि कोई दाता) उत्पल, पद्म, कुमुद या मालती अथवा अन्य किसी सचित्त पूष्प को सम्मर्दन (मसल या कुचल) कर भिक्षा देने लगे तो वह भक्त-पान संयमी साध-साध्वियों के लिए अकल्पनीय होता है। (इसलिए आहार) देने वाली (उस महिला) से (मुनि) निषेध कर दे कि . इस प्रकार का आहार मेरे लिए अग्राह्य है / / 16-17 / / / [231-232] अनिवृत (जो शस्त्र से परिणत नहीं है, ऐसे) कमलकन्द, पलाशकन्द, कुमुदनाल, उत्पलनाल, कमल के तन्तु (मृणाल), सरसों की नाल, अपक्व इक्षुखण्ड (गण्डेरी) को अथवा वृक्ष, तृण और दूसरी हरी वनस्पति (हरियाली) का कच्चा नया प्रवाल (कोंपल) छोड़ दे, (ग्रहण न करे) // 18-16 / / _ [233] जिसके बीज न पके हों, ऐसी नई (ताजी) अथवा एक बार भुनी हुई (मूग आदि की) कच्ची फली देती हुई (दात्री महिला) को साधु निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मैं ग्रहण नहीं करता // 20 // [234] इसी प्रकार बिना उबाला हुआ बेर, वंश-करीर (बांस का अंकुर या केर), काश्यपनालिका (श्रीपर्णी का फल) तथा अपक्व तिलपपड़ी और कदम्ब का फल (नीप) नहीं लेना चाहिए // 21 // [235] इसी प्रकार चावलों का पिष्ट (आटा) और विकृत (शुद्धोदक धोवन) तथा निर्वृत (जो गर्म जल ठंडा होकर सचित्त हो गया हो ऐसा) जल (अथवा मिश्र जल), तिलपिष्ट (तिलकूट), पोइ-साग और सरसों की खली, ये सब कच्चे (अपक्व) न ले // 22 // [236] अपक्व (कच्चे) और शस्त्र से अपरिणत कपित्थ (कैथ), बिजौरा, मूला और मूले के कन्द के टुकड़े को (ग्रहण करने की) मन से भी इच्छा न करे / / 23 // पाठान्तर-+ कोलमणसिन्नं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org