________________ 202] [वशवकालिकसूत्र आलोचना करने की विधि-वस्तुत: आलोचना भिक्षाशुद्धि का प्राण है। इसलिए गुरु, आचार्य, संघाटक के अग्रणी भिक्षु अथवा स्थविर के समीप आलोचना करे। आलोचना प्राचार्य के समीप करने से पूर्व प्रोधनियुक्ति का कथन है कि साधु यह देखे कि प्राचार्य व्याक्षिप्त न हों, वे अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों (यथा धर्मकथा, पाहार-नीहार, किसी आगन्तुक से वार्तालाप आदि) में व्यस्त न / उनसे आलोचना की अनुज्ञा प्राप्त करके आलोचना करे। जिस क्रम से भिक्षा ली हो अथवा भिक्षाचरी के लिए उपाश्रय से निकलने के बाद कहाँ-कहाँ ठहरा? क्या-क्या क्रियाएँ हुई ? भिक्षा ग्रहण के प्रारम्भ से अन्त तक जो कुछ घटना या क्रिया जिस रूप में जिस क्रम से हुई हो उसकी आलोचना सरल एवं अनुद्विग्न होकर करनी चाहिए। 2 यदि स्मृतिगत आलोचना के अतिरिक्त भी कोई आलोचना अज्ञात या विस्मृत हो रही हो तो उसकी शुद्धि के लिए पुनः प्रतिक्रमण करे, अर्थात्-'पडिक्कमामि गोयरग्गचरियाए' सूत्र पढ़े / तत्पश्चात शरीर के प्रति ममत्व का सर्वथा त्याग कर दढतापूर्वक निश्चेष्ट (स्थिर) खडा कायोत्सर्ग करे, जिसमें शरीरधारणार्थ जिनोपदिष्ट निरवद्य भिक्षावृत्ति का तथा अवशिष्ट अतिचारों का चिन्तन करे / फिर नमस्कार पूर्वक कायोत्सर्ग पूर्ण करे और प्रकट में 'लोगस्स' (जिनसंस्तव) पढ़े / आहार ग्रहण के लिए आमंत्रण---इसके पश्चात् भी साधु भिक्षा प्राप्त आहार को सेवन करने में प्रवृत्त न हो। मण्डल्युपजीवी साधु मण्डली के साधु जब तक एकत्रित न हो जाएँ, तब तक पाहार प्रारम्भ न करे। तब तक कुछ क्षण विश्राम करे। विश्राम के क्षणों में वह स्वाध्याय करे। विश्राम के क्षणों में वह यह भी चिन्तन करे कि यदि मेरे लाये हुए अथवा मुझे अपने हिस्से में प्राप्त हुए इस आहार में से गुरु, प्राचार्य या कोई भी साधु लेने का अनुग्रह करें तो मुझे अनायास ही कर्मनिर्जरा का लाभ मिले और मैं निहाल हो जाऊँ। यदि सर्व आहार दूसरों को अर्पण करके स्वयं तपत्याग का उत्कृष्ट रसायन आ जाए तो संसार-समद्र से संतरण भी सम्भव हो सकता है। प्रोपनियुक्तिकार के अनुसार जो भिक्षु अपनी लाई हुई भिक्षा ग्रहण करने के लिए सार्मिक साधुनों को निमंत्रण देता है, वह अपनी चित्तशुद्धि करता है। चित्तशुद्धि से निर्जरा (कर्मक्षय) होती है, आत्मा शुद्ध होती है। 92. (क) प्रोधनियुक्ति, गा. 514, 515, 517, 518, 519 (ख) अावश्यकसूत्र 48 (ग) बोसट्टो-"व्युत्सृष्टदेहः प्रलम्बितबाहस्त्यक्तदेहः, सर्पाद्य पदवेऽपि नोत्सारयति कायोत्सर्गम् / अथवा व्युत्सृष्टदेहो दिव्योपसर्गेष्वपि न कायोत्सर्गभंग करोति / त्यक्तदेहोऽक्षिमलदुषिकामपि नापनयति / स एवंविधः कायोत्सर्ग कुर्यात् / " —ोपनियुक्ति, गा. 510 बृ. 93. (क) 'जाब साहुणो अन्ने आगच्छंति, जो पुण खमणो अत्तलाभित्रो वा सो मुहुत्तमेत्तं वा सज्झो (वीसत्थो)।' -जिन. चूणि, पृ. 189 (ख) 'मण्डल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् यावदन्य आगच्छन्ति, यः पुनस्तदन्यः क्षपकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्रामयेत क्षणं---स्तोककालं मुनिरिति / ' -हारि. बु., प. 180 (ग) प्रोपनियुक्ति, गा. 525 / (घ) दशव. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी), पृ. 236-237 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org