________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [203 आहारपरिभोगेषणा-शुद्धि-अविवेकी साधु निर्दोष पाहार का सेवन करते समय कुछ दोषों से लिप्त हो सकता है। इसके लिए शास्त्रकार ने पिछली चार गाथाओं (206 से 212 तक) में विधि और शुद्धि दोनों का निरूपण किया है / भोजन प्रारम्भ करते समय जिस पात्र में भोजन करना हो, वह पालोक-भाजन (जिसका मुंह चौड़ा या खुला हो, ऐसा पात्र) हो, ताकि आहार करते समय कोई जीव-जन्तु हो तो भलीभांति देखा जा सके। दूसरा भोजन का विवेक बताया गया है-भोजनकणों को नीचे न गिराते हुए या इधर-उधर न बिखेरते हुए भोजन करे। चपचप करते हुए, बिना चबाए, हड़बड़ी में या अन्यमनस्क होकर अशान्तभाव से भोजन न करे / 4 परिभोगेषणा के पांच दोषों को वजित करे--परिभोगैषणा के पांच दोष हैं, जिन्हें मांडले के पांच दोष कहते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) संयोजना--नीरस आहार को सरस बनाने के लिए तत्संयोगीय वस्तु मिला कर खाना / (2) प्रमाण-प्रमाण से अधिक भोजन करना / अधिक मात्रा में भोजन करने से आलस्य, निद्रा, प्रमाद, स्वाध्याय कार्यक्रम-भंग आदि अनिष्ट उत्पन्न होते हैं / (3) अंगार--सरस, स्वादिष्ट भोजन या दाता की प्रशंसा करना, स्वाद से प्रेरित होकर मूच्छीवश खाना / (4) धूम-नीरस आदि प्रतिकूल प्राहार की निन्दा करना, उसे द्वेष, क्रोध और घृणापूर्वक खाना। (5) कारण का अर्थ है--साधु को भोजन करने के जो 6 कारण बताए हैं, उनमें से कोई भी कारण न होने पर भी आहार करना। इन दोषों से बचने के लिए यहाँ कहा गया है-भुजेज्जा दोसवज्जियं 5 'अन्नपउत्तं' आदि शब्दों के विशेषार्थ-अन्नपउत्तं : तीन अर्थ-(१) अन्य-गृहस्थ के लिए प्रयुक्त---प्रकृत, परकृत / (2) केवल भोजन के प्रयोजन के लिए प्रयुक्त / (3) अन्य--मोक्ष के निमित्त आहार करना भगवान् द्वारा प्रोक्त है। विरसं–जिसका रस विगड़ गया हो या सत्व नष्ट हो गया हो / जैसे—बहुत पुराने काले या ठंडे चावल / सूइयं-असूइयं: दो रूप-दो अर्थ--(१) सुपित-दाल आदि व्यञ्जनयुक्त खाद्य वस्तु, असपित-व्यंजनरहित पदार्थ 1 (2) सचित-कह कर दिया हया। असचित--बिना कहे दिया हया। उल्लं-सुक्कं : आर्द्र-शुष्क-बधार सहित साग या दाल प्रधानमात्रा में हो वह प्रार्द्र और वघार (छौंक) रहित शाक शुष्क है / मंथु कुम्मासं–मन्थु : दो अर्थ---(१) बेर का चूर्ण, (2) बेर, जौ आदि का चूर्ण | कुम्मास--जी से बना हुआ अथवा पके हुए उड़द से निष्पन्न / 6 __अप्पं पि बहु फासुअं : दो विशेषार्थ-(१) थोड़ा होते हुए भी प्रासुक एवं एषणीय होने से बहुत (प्रभूत) है / (2) अल्प-रसादि से हीन होते हुए भी मेरे लिए प्रासुक (निर्जीव) होने से बहुत 94. तं पुण कंटऽद्विमक्खितापरिहरणत्थं 'पालोगभायणे' पगासविउलमुहे वल्लिकाइए। --अ. चु., पृ. 123 95. (क) भगवती सूत्र 71 / 21-24 (ख) "वेयण-वेयावच्चे, इरियट्टाए य संजमट्ठाए। तह पाणवत्तियाए छट्ठपुण धम्मचिताए।" -उत्तराध्ययन अ. 26 // 32 . (क) “अण्णा पउत्तं-परकर्ड, अहवा भोयणत्थे पग्रोए एतं लद्ध अतो तं / " -अ.चु., पृ. 184 (ख) अण्णो मोक्खो तमिणमित्तं आहारेयव्वंति। -जि. च., पृ. 190 (ग) अ. चू., पृ. 124; जि. चू., पृ. 190; हारि, वृत्ति, पत्र 180-181 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org