________________ 196] [दशवकालिकसूत्र घड़े का धोवन वार-धोवन है। संसेइमं : दो अर्थ-(१) अरटे का धोवन, (2) उबाली हुई भाजी या साग जिस ठंडे जल से सींचा जाए, वह धोवन / ' __ ग्रहणाधोय : अधुनाधौत-तत्काल का धोवन, जिसका स्वाद न बदला हो, जिसकी गन्ध न बदली हो. जिसका रंग न बदला हो, विरोधी शस्त्र द्वारा जो अचित्त न हा हो, वह अप्रासूक (सजीव) होने से मुनि के लिए अग्राह्य है / चिराधोयं : चिरधौत-जो प्रासुक (निर्जीव) हो गया हो, वह चिरधौत जल मुनि के लिए ग्राह्य है। अर्थात्-जो वर्णादि परिणत (परिणामान्तर प्राप्त) हो गया हो / परम्परा के अनुसार जिस धोवन को अन्तमुहूर्त काल न हुआ हो, वह ग्राह्य नहीं है / परिष्ठापनयोग्य धोवन-जो आरनाल आदि का अत्यन्त अम्ल (खट्टा), देर तक रखा रहने से दर्गन्धयक्त हो और जिससे प्यास न बुझे, ऐसा धोवन ग्रहण नहीं करना चाहिए। कदाचित प्रति भक्तिवश किसी श्रावक ने दे दिया हो या साधु ने उतावली में ले लिया हो, तो उस धोवन को न स्वयं पीए, न ही दूसरे साधुओं को पिलाए, किन्तु एकान्त निरवद्य अचित्त स्थान में यतनापूर्वक तीन वार बोसिरे-बोसिरे कह कर परिष्ठापन कर दे और बाद में स्थान में आकर ईर्यापथिक की विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करना चाहिए / इसीलिए कहा गया है-"परिठप्प पडिक्कमे।" तण्हं विणित्तए नालं-तृषा-निवारण करने में असमर्थ, प्यास बुझाने में अयोग्य 183 परिभोगेषणा-विधि भोजन करने को प्रापवादिक विधि 195. सिया य गोयरग्गगो इच्छज्जा परिभोत्तुयं / / *कोटगं मित्तिमूलं वा पडिले हित्ताण फासुयं // 113 // 81. (क) उच्च वर्णाद्य पेतं द्राक्षापानादि, अवचं वर्णादिहीनं पूत्यारनालादि। -हा. वृ., पत्र 177 (ख) उच्चावयं अणेगविधं-बष्ण-गंध-रस-फासेहिं हीण-मज्झिममुत्तमं / -अ. च., पृ. 118 (ग) 'सो य गूल-फाणितादि भायणं, तस्स धोवणं बारधोवणं / ' –जिन. च., पृ. 185 (घ) 'संस्वेदजं पिष्टोदकादि।' हारि. वृत्ति, पत्र 177 (अ) जम्मि किंचि सागादी संसेदेत्ता सित्तोसित्तादि कीरति तं संसेइमं / ' -अगस्त्यचणि, पृ. 119 82. (क) ..."अहणाधोयं अणंबिलं अव्वोक्कतं अपरिणयं अविद्धत्थं अफास्यं अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिग्याहिज्जा / -प्राचा. च., 299 (ख) 'ग्राउक्कायस्स चिरेण परिणामो' त्ति मुहियापाणगं पक्खित्तमत्त बालगे वा धोयमेते, सागे वा पक्खित्तमेत्ते, अभिणवधोते सु चाउलेसु / ' -अगस्त्यचूणि, पृ. 119 (ग) ... अह पुण एवं जाणेज्जा चिराधोयं अंबिलं वोक्कतं, परिणतं विद्धत्थं फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। -प्राचारांग. चू., 199 (घ) दशव. (प्राचारमणिमंजूषा) भा. 1, पृ. 468 83. (क) प्रचित्त नाम जं सत्थोवा अचित्त। --जि. प., पृ. 186 (ख) परिवेऊण उवस्सयमागंतूण ईरियावहियाए पडिक्कमेज्जा। -जि. चू., पृ. 186-187 पाठान्तर- परिभत्त। * कुट्टगं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org