________________ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक [35 अभय कुमार से यह बात कही तो अभय कुमार के द्वारा कारण पूछे जाने पर नवदीक्षित की सारी बात कह दी। अभयकुमार ने कहा आप विराजें / मैं नागरिकों को युक्ति से समझा दूंगा। प्राचार्य श्री नवदीक्षित के साथ वहीं विराजे। दूसरे दिन अभयकुमार ने एक सार्वजनिक स्थान पर तीन रत्नकोटि की ढेरी लगवाई और घोषणा कराई—"जो व्यक्ति, सचित्त अग्नि, पानी और स्त्री, इन तीनों को आजीवन छोड़ देगा, उसे अभयकुमार ये तीन रत्नकोटि देंगे।" लोगों ने घोषणा सुनी तो कहा---'इन तीनों के बिना, तीन रत्नकोटियों से क्या प्रयोजन ?" अभयकुमार ने यह सुनकर सबको करारा उत्तर दिया-"जिस व्यक्ति ने इन तीनों चीजों को जीवन भर के लिए छोड़ दिया है, उसने तीन रत्नकोटि का परित्याग किया है। फिर ऐसा क्यों कहते हो कि दीन-हीन जंगली लकड़हारा प्रवजित हुया है।" लोगों ने एक स्वर से अभयकुमार की बात स्वीकार की और क्षमा मांग कर चले गए / प्राचार्य कहते हैं-अग्नि, जल और स्त्री, इन तीन चीजों को जीवनभर के लिए छोड़ कर प्रवज्या लेने वाला धनहीन व्यक्ति भी संयम में सुस्थिर होने पर त्यागी कहलाएगा।" निष्कर्ष यह है कि धनी हो या निर्धन, जो व्यक्ति वैराग्यपूर्वक मनोरम एवं दिव्यभोगों का स्वेच्छा से त्याग कर देता है, फिर उनका मन से भी विचार नहीं करता, वही त्यागी है / काम-भोगनिवारण के उपाय 9. समाए पेहाए परिव्ययंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा। न सा महं, नो वि अहंपि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं // 4 // 10. पायावयाही चय सोगुमल्लं, कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं / __ छिदाहि दोस, विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए // 5 // [6] समभाव की प्रेक्षासे विचरते हुए (साधु का) मन कदाचित् (संयम से) बाहर निकल जाए, तो 'वह (स्त्री या कोई काम्य वस्तु) मेरी नहीं है, और न मैं ही उसका हूँ इस प्रकार का विचार करके उस (स्त्री या अन्य काम्य वस्तु) पर से (उसके प्रति होने वाले) राग को हटा ले। [10] (गुरु शिष्य से कहते हैं-) 'आतापना ले (या अपने को अच्छी तरह से तपा), सुकुमारता का त्याग कर / कामभोगों (विषयवासना) का अतिक्रम कर। (इससे) दुःख अवश्यमेव (स्वतः) अतिक्रान्त होगा। (साथ ही) द्वेषभाव का छेदन कर, रागभाव को दूर कर / ऐसा करने से तू संसार (इह-परलोक) में सुखी हो जाएगा। विवेचन-पान्तरिक एवं बाह्य उपाय द्वारा कामनिवारण-प्रस्तुत दो गाथाओं (4-5) में कामरागनिवारण के आन्तरिक और बाह्य दोनों उपाय बतलाए हैं। समाए पेहाए परिव्ययंतो : दो रूप : तीन अर्थ और तात्पर्य-(१) समया प्रेक्षया परिव्रजतः--चूणि और टीका के अनुसार अपने और दूसरे को समप्रेक्षा (समदृष्टि, समभावना, 20. हारि. वृति पृ. 93 21. (क) अग. चूणि पृ. 43 (ख) जिन. चूणि पृ. 84 (ग) हारि. वृत्ति, पत्र 93 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org