________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [135 कल्लाणं, पावगं : कल्याण-(१) कल्य-अर्थात् मोक्ष को जो प्राप्त कराए। उसे ज्ञान-दर्शनचारित्र, संयम, धर्म आदि भी कहा जा सकता है। पापक-(१) अकल्याण, (2) जिसके करने से पाप कर्मों का बन्ध हो, वह है असंयम / उभयं : दो अर्थ–(१) कल्याण और पाप दोनों को, (2) उभय-संयमासंयम स्वरूप श्रावकोपयोगी, जिसमें कल्याण और पाप दोनों हों। 15 जीवाजीव के अविज्ञान-विज्ञान का परिणाम-जो व्यक्ति जीवों को शरीर-संहनन-संस्थान, स्थिति, पर्याप्ति विशेष प्रादि सहित नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता, वह 17 प्रकार के संयम को सर्वपर्यायों सहित कैसे जान सकता है ? श्रेय और पाप को जानने वाला पाप का परित्याग करके श्रेय-संयम को अपना लेता है, तथा असंयम का परिहार करके मद्यमांसादि अजीव का भी परिहार करता है, इस प्रकार वह जीवाजीव-संयम का पालन कर सकता है।'१६ तात्पर्य यह है कि जीव और अजीव की परिज्ञा वाला व्यक्ति जीव और अजीव सम्बन्धी संयम को जानता है। जीवों का वध न करना चाहिए, इस प्रकार का ज्ञान होने से वह जीव-संयम करता है। मद्य, मांस, हिरण्यादि अजोब द्रव्यों का ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि ये संयमविघातक हैं। इस प्रकार अजीव-संयम भी कर सकता है / निष्कर्ष यह है कि जो जीव-अजीव को नहीं जानता, वह उनके प्रति संयम को भी नहीं जानता, अत: उनके प्रति वह संयम भी नहीं कर सकता। जीवाजीव-विज्ञान : गति, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष के ज्ञान से सम्बद्ध-प्रस्तुत दो गाथाओं (3738 वीं) में जीवाजीव विज्ञान का गति आदि के ज्ञान से सीधा सम्बन्ध बताया गया है। जब मनुष्य को जोव, अजीव का विवेक-ज्ञान हो जाता है, तब वह विचार करता है कि सबकी आत्मा निश्चय दृष्टि से एकसी होने पर भी ये नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव आदि विभिन्न पर्याय अथवा जीवों में अन्य विभिन्नताएँ क्यों हैं ? एक नारक या तिर्यञ्च क्यों बना ? दूसरा मनुष्य या देव क्यों बना? तब 115. (क) कल्यो मोक्षस्तमणति-प्रापयतीति कल्याणं-दयाख्यं संयमस्वरूपम् .-हा. टी., पत्र 158 (ख) कल्लं नाम नीरोगया सा य मोक्खो, तमणेइ जंतं कल्लाण, ताणि यणाणाईणि / जि. चू., पृ. 161 . (ग) कल्लं प्रारोग्गं तं प्राणेइ कल्लाणं, संसारातो विमोक्खणं, सो य धम्मो। -जि. च., पृ. 93 (घ) 'पावकं अकल्लाणं / ' -वही, पृ. 93, (ङ) “जेण य कएण कम्म बज्झइ, तं पावं, सो य असंजमो।" -जिन. चूणि., पृ. 161 (च) “उभयमपि'–संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि। —हारि. वत्ति., पत्र 158 (छ) “उभयं एतदेव कल्लाणं पावगं / ' -अगस्त्यचूणि, पृ. 93 116. (क) अगस्त्य चूणि., पृ. 94 (ख) जिनदास. चूर्णि, पृ. 161-162 (ग) हारि. वृत्ति, पत्र 158 (घ) जीवा जस्स परिन्नाया, वेरं तस्स न विज्जइ / न हु जीरे प्रयाणतो वहं वेरं च जाणइ / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org