________________ 156] [दशवकालिकसूत्र भ्रमर, कीट, पतंग आदि) जीव मार्ग मे छा रहे हों तो उस समय चलने से उनकी विराधना सम्भव है / 14 ब्रह्मचर्य व्रत रक्षार्थ : वेश्यालयादि के निकट से गमन-निषेध 91. न चरेज्ज वेससामंते बंभचेरवसाणुए / बंभयारिस्स दंतस्स होज्जा तत्थ विसोत्तिया // 6 // 92. अणाययणे चरंतस्स संसग्गीए अभिक्खणं। होज्ज वयाणं पीला, सामण्णम्मि प्रसंसओ // 10 // 93. तम्हा एवं क्यिाणित्ता दोसं दुग्गइवडणं / वज्जए वेससामंतं मुणी एगंतमस्सिए / // 11 // [11] ब्रह्मचर्य का वशवर्ती श्रमण वेश्याबाड़े (वेश्यानों के मोहल्ले) के निकट (होकर) न जाए; क्योंकि दमितेन्द्रिय और ब्रह्मचारी साधक के चित्त में भी विस्रोतसिका (असमाधि) उत्पन्न हो सकती है / / 9 / / [12] (ऐसे) कुस्थान में बार-बार जाने वाले मुनि के (काम-विकारमय वातावरण का) संसर्ग होने से व्रतों को पीड़ा (क्षति) और साधुता में सन्देह हो सकता है / / 10 / / [13] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर एकान्त (मोक्षमार्ग) के आश्रय में रहने वाला मुनि वेश्याबाड़े के पास न जाए / / 11 / / विवेचन-ब्रह्मचर्यघातक स्थानों के निकट भिक्षाटन निषेध-मुनि को भिक्षाचरी के लिए ऐसे मोहल्ले में या ऐसे मोहल्ले के निकट से भी होकर नहीं जाना चाहिए, जहाँ दुराचारिणी स्त्रियाँ रहती हों, क्योंकि वहां जाने से ब्रह्मचर्य महावत या साधुत्व के प्रति लोग शंका की दृष्टि से देखेंगे, उसका मन भी वहाँ के दृश्यों तथा वातावरण को देख कर ब्रह्मचर्य से विचलित हो सकता है / ऐसी चरित्रहीन नारियों के बार-बार के संसर्ग के कारण साधु के महाव्रतों की क्षति हो सकती है / कामविकार के बीज किस समय, किस परिस्थिति में अंकुरित हो उठे, यह नहीं कहा जा सकता / अतः ऐसे खतरों से सदा सावधान रहना चाहिए।" बंभचेरवसाणुए --ब्रह्मचर्य का वशवर्ती, ब्रह्मचर्य को वश में लाने वाला, अथवा ब्रह्मचर्य अर्थात् गुरु के अधीन रहने वाला साधक / '6 14. (क) 'सचित्तपृथ्वीरजोगुण्डिताभ्यां पादाभ्याम् / ' हारि. वृत्ति, पत्र 164 (ख) "न चरेद् वर्षे वर्षति, भिक्षार्थं प्रविष्टो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत् / " -हारि. वृ., पत्र 164 (ग) अगस्त्यचूणि, पृ. 101, (घ) जिनदास चूणि, पृ. 170 15. (क) दशवै. (संतबालजी) पृ. 44-45 16. (क) ब्रह्मचर्य-मैथुनविरतिरूपं वशमानयति-आत्मायत्त करोति, दर्शनाक्षेपादिना ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् / -हा. टी., प. 165 (ख) 'बंभचेरं वसमणुगच्छति-बंभचेरवसाणुए।' -अ. चू., पृ. 101 (ग) बंभचारिणो गुरुणो तेसिं वसमणुगच्छतीति, बंभचेरवसाणुए। -वही, पृ. 101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org