________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [153 सबको देने के निमित्त से बना हुअा आहार लेने पर निर्ग्रन्थ साधुसाध्वियों को औद्देशिक दोष लगता है / अन्यों के अन्तराय का भी वह कारण होता है।६५ प्रशन-पानक-खादिम-स्वादिम : विशेषार्थ-प्रशन का अर्थ है-प्रोदन आदि अन्न, पानक का अर्थ द्राक्षा आदि से बने हुए पेयपदार्थ है / शास्त्र में साधारण जल को प्रायः पानीय, सुरा आदि को पान और द्राक्षा, खजूर, फालसे और प्रादि से निष्पन्न जल को पानक कहा गया है / 66 प्रौद्देशिकादि दोषयुक्त आहारग्रहणनिषेध 152. उद्देसियं कोयगडं पूईकम्मं च आहडं / अज्झोयर-पामिच्चं मोसजायं च वज्जए // 7 // [152] (साधु या साध्वी) औद्देशिक, क्रीतकृत, पूतिकर्म, पाहृत, अध्यवतर (या अध्यवपूरक), प्रामित्य और मिश्रजात, (इन दोषों से युक्त) आहार न ले // 70 // विवेचन-औद्देशिक आदि पदों की व्याख्या-औद्देशिक—किसी एक या अनेक विशिष्ट साधुओं के निमित्त से गृहस्थ के द्वारा बनाया हुआ आहार। यह उद्गम का दूसरा दोष है। कोतकृत-- साधु के लिए खरीद कर निष्पन्न किया हुअा अाहार क्रीतकृत है / यह पाठवाँ उद्गम दोष है / पूतिकर्म-विशुद्ध आहार में प्राधाकर्म आहार आदि दोषों से दूषित आहार के अंश को मिला कर निष्पन्न किया गया पाहार / ऐसा आहार लेने से मुनियों के चारित्र में अपवित्रता (अशुद्धि) आती है, इसलिए इसे भावपूति कहते हैं / पूतिकर्म तीसरा उद्गम-दोष है / आहत-साधु या साध्वी को देने के लिए अपने घर गाँव आदि से उपाश्रय आदि स्थान में ला कर या मंगवा कर दिया जाने वाला पाहार / इसे अभ्याहृत दोष भी कहते हैं। यह उत्पादना के दोषों में से एक है। अज्झोयर : अध्यवतर या अध्यवपूरक- अपने लिए आहार बनाते समय साधुओं का गाँव में पदार्पण या निवास जान कर और अधिक पकाया हुअा अाहार अध्यवतर या अध्यवपूरक है / यह उद्गम का सोलहवाँ दोष है / प्रामित्य-साधु को देने के लिए कोई खाद्य पदार्थ दूसरों से उधार लेकर दिया जाने वाला आहार / यह उद्गम का नौवाँ दोष है। मिश्रजात-गृहस्थ अपने लिए भोजन पकाए त साथ-साथ साध के लिए भी पका कर दिया जाने वाला आहार। यह उद्गम का चौथा दोष है। इसके तीन प्रकार हैं---यावदर्थिकमिश्र, पाखण्डिमिध और साधुमिश्र / 67 65. (क) श्ववनीपको यथा--अविनाम होज्ज सुलभो गोणाईणं तणाइ अाहारो। छिच्छिकारहयाणं न हु सुलभो सुणताणं // केलासभवणा एए, गुज्झगा आगया महि / चरंति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूया हिताऽहिता ॥-ठा.१२०० 7. (ख) श्रमणाः लोकप्रसिद्धयनुरोधतो निर्ग्रन्थ-शाक्य-तापस-गरिकाऽऽजीवकभेदेन पंचधा / -दश. प्रा. म. मं, भा. 1, पृ. 444 66. दशवं. (प्राचारमणिमंजूषा व्याख्या) भाग 1, पृ. 437 67. (क) दशवै. प्राचारमणिमंजूषा टीका, भा. 1, पृ. 445-446 (ख) दशव. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 190 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org