________________ पंचम अध्ययन : पिण्डेषणा [191 श्रामक वनस्पति ग्रहण निषेध-- 183. कंदं मूलं पलंबं वा प्रामं छिन्नं च सन्निरं। तुंबागं सिंगबेरं च आमगं परिवज्जए॥१०१॥ [183] (साधु-साध्वी) अपक्व कन्द, मूल, प्रलम्ब (ताड़ आदि लम्बा फल) छिला हुआ पत्ती का शाक, घीया (लौकी) और अदरक ग्रहण न करे / / 101 / / विवेचन-प्रामक कन्द आदि : अर्थ और अग्राह्यता का कारण प्रामक–कच्चे (अपक्व) कन्द-सूरण आदि / मूल-मूला आदि / फल-ग्राम आदि कच्चे फल / सन्निरं--वथुपा, चंदलिया, पालक आदि का छिला हुआ पत्तीवाला साग (पत्रशाक)। तुम्बाकं—जिसकी त्वचा म्लान हो गई हो, किन्तु अंदर का भाग अम्लान हो, वह तुम्बाक कहलाता है। हिन्दी में इसे कद्, घीया, लौकी या राम-तरोई कहते हैं / बंगला में लाऊ कहते हैं। शृंगबेर---अदरक / ये जब तक शास्त्रपरिणत न हों, तब तक भले ही कटे हुए या टुकड़े किये हुए हों, सचित्त कहलाते हैं। इस कारण अग्राह्य हैं / 76 सचित्त रज से लिप्त वस्तु भी अग्राह्य 184. तहेव सत्तु-चुणाई कोल-चुण्णाई आवणे / सक्कुलि फाणियं पूर्य, अन्नं वा वि तहाविहं // 102 / / 185. विक्कायमाणं पसढं, रएण परिफासियं / देतियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 103 / / [184-185] इसी प्रकार जौ प्रादि सत्तु का चूर्ण (चून), बेर का चूर्ण, तिलपपड़ी, गीला गुड़ (राब), पूआ तथा इसी प्रकार की अन्य (लड्डू, जलेबी आदि) वस्तुएँ, जो दूकान में बेचने के लिए, बहुत समय से खुली रखी हुई हों और (सचित्त) रज से चारों ओर स्पृष्ट (लिप्त) हों, तो साधु देती हुई उस स्त्री को निषेध कर दे कि मैं इस प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करता / / 102.103 / / विवेचन-सचित्त रज से भरी बाजारू वस्त-ग्रहण निषेध-प्रस्तुत दो सूत्र गाथाओं (184185) में बाजार में बिकने के लिए हलवाइयों आदि की दुकानों पर अनेक दिनों से खुले में रखी हुई एवं रज से लिपटी वस्तुओं के लेने का निषेध किया गया है। इन्हें लेने का निषेध इसलिए किया गया है कि ऐसी वस्तुओं पर केवल सचित्त रज ही नहीं, मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं, कीड़े और चींटियाँ चारों ओर चढ़ी होती हैं, वे मर भी जाती हैं, कई बार बहुत दिनों से पड़ी हुई गीली खाद्य वस्तुओं में लीलण-फूलण जम जाती है / वे अन्दर से सड़ जाती हैं, तो उनमें लट, धनेरिया आदि कीड़े पड़ जाते 76. (क) दशवं. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 208 (ख) दशवं. (संतबालजी) पृ. 55 (ग) 'सनिरं' पत्तसागं पत्रशाकम् / ' –हारि. वृत्ति, पत्र 176 / (घ) 'तुबागं जं तयाए मिलाणममिलाणं अंतो त्वम्लानम् / ' -अ. चूर्णि, पृ. 184 (ङ) 'अलाबुः कथिता तुम्बी द्विधा दीर्घा च वर्तुला।' –शालिग्राम निघण्टु, पृ. 890 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org