________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [189 (8) निस्सिचिया -उफान के डर से पानी का छोटा अग्नि पर रखे बर्तन में देकर आहार देना नि:सिंचन दोष है / (9) ओवत्तिया-अग्नि पर रखे पात्र को एक अोर झुका कर आहार देना अपवत्तित दोष है / (10) प्रोयारिया–साधु को भिक्षा दूं, इतने में जल न जाए? इस विचार से अग्नि पर रखे बर्तन को नीचे उतार कर आहार देना अवतारित दोष है। अस्थिर शिलादि संक्रमण करके गमननिषेध और कारण *178. होज्ज कट्ठ सिलं वा वि इट्टालं वा वि एगया। ठवियं संकमट्ठाए तं च होज्ज चलाचलं // 16 // 179. न तेण भिक्खू गच्छेज्जा, दिट्ठो तत्थ असंजमो / गंभीरं झुसिरं चेव सबिदियसमाहिए // 97 // [178.179] (यदि) कभी (वर्षा आदि के समय में) काठ (लक्कड़), शिला या ईंट संक्रमण (मार्ग पार करने) के लिए रखे (स्थापित किये) हुए हों और वे चलाचल (अस्थिर) हों, तो सर्वेन्द्रियसमाहित भिक्ष उन पर से होकर न जाए। इसी प्रकार प्रकाशरहित (अंधेरे) और पोले (अन्तःसाररहित) (मार्ग) से भी न जाए। भगवान् ने उसमें (ऐसे मार्ग से गमन करने में) असंयम देखा है / / 66-67 / / विवेचन--मार्गविवेक-वर्षाऋतु में अतिवृष्टि के कारण कई बार रास्ते में गड्ढे पड़ जाते हैं, अथवा छोटा तथा सूखा नाला पानी से भर जाता है, तब ग्रामीण लोग उसे पार करने के लिए लकड़ी का बड़ा लट्ठा, शिला, पत्थर या ईंट रख देते हैं / ये प्रायः अस्थिर होते हैं। उनके नीचे कई जीव प्राश्रय ले लेते हैं, अथवा वे सचित्त जल पर रखे होते हैं। उन पर पैर रख कर जाने से उन जीवों की हिंसा होने की सम्भावना है, अथवा पैर फिसल जाने से गड्ढे में गिर पड़ने की सम्भावना है। इस प्रकार परविराधना और प्रात्मविराधना, दोनों असंयम के हेतु हैं। इस प्रकार अंधेरे या पोले मार्ग से जाने में भी दोनों प्रकार के असंयम होने की सम्भावना है। इसलिए इस प्रकार संक्रमण कर गमन करने का निषेध किया गया है।७४ 72. (क) जिन. चूणि, पृ 182 (ख) अ. चू., पृ. 115 (ग) हारि. वृत्ति, पत्र 175 पाठान्तर-सूत्रगाथा 178 से लेकर 182 तक पांच सूत्रगाथाओं के स्थान में अगस्त्य चूर्णि में ये तीन गाथाएँ मिलती हैं गंभीरं झुसिरं चेव सविदियसमाहिते / णिस्सेणी फलगं पीठं उस्सवेत्ताण प्रारुहे // 1 // मंचं खीलं च पासायं समणट्ठाए दायगे / दुरूहमाणे पवडेज्जा हत्थं पायं विलसए / / 2 / / पुढविक्कायं विहिंसेज्जा, जे वा तण्णिस्सिया जगा / तम्हा मालोहडं भिक्खं न पडिगाहेज्ज संजते // 3 // 74. दशव. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 458 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org