________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [175 'पुरेकम्मेण हत्थेण' 0 इत्यादि दोष-साधु को भिक्षा देने के निमित्त पहले सचित्त जल से हाथ, कड़छी, या बर्तन आदि धोना अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रारम्भ (जीवहिंसा) करना पूर्वकर्म (या पुराकर्म) दोष है / भाजन और मात्रक-मिट्टी के बर्तन अमत्रक या मात्रक और कांसे अादि धातुओं के पात्र भाजन कहलाते हैं।' 'उदप्रोल्लेण' से 'उक्कुटगतेण' तक 17 दोष—प्रस्तुत 17 गाथाओं में 'उदका' से लेकर 'उत्कृष्ट' तक जो 17 दोष हाथ, कड़छी और भाजन से लगते हैं, उनका वर्णन किया गया है। इनमें से कुछ अप्काय से, कुछ पृथ्वी काय से और कुछ वनस्पतिकाय से सम्बन्धित दोष हैं। कठिन शब्दों के विशेष अर्थ----उदोल्ले-उदका, जिससे पानी की बू दें टपक रही हों। 'ससिणिद्ध'-'सस्निग्ध' जो केवल पानी से गीला-सा हो। ऊसे-ऊष या क्षार ऊपर मिट्री। गैरिक-लाल मिट्टी, गेरू। वणिय-बणिका, पीली मिट्टी 52 सेडिय-सफेद मिट्टी, खड़िया मिट्टी / सोरदिय–सौराष्ट्रिका, सौराष्ट्र में पाई जाने वाली एक प्रकार की मिट्टी, जिसे गोपीचन्दन भी कहते हैं / पिट्ठ-पिष्ट-तत्काल पीसा हुआ आटा, अथवा चावलों का कच्चा और अपरिणत पाटा / कुक्कुस—अनाज या धान का भूसा या छिलका। उपकुद्र : उत्कृष्ट : दो अर्थ-फलों के छोटे-छोटे टुकड़े या वनस्पति का चूर्ण (तिल, गेहूँ, और यवों का प्राटा, अथवा अोखली में कूटे हुए इमली या पीलुपर्णी के पत्ते, लौकी और तरज आदि के सूक्ष्म खण्ड ) / ये सब दोष सचित्त से संसृष्ट हाथ, कड़छी या भाजन के द्वारा साधु को देने से लगते हैं, अतः साधु को इन दोषों में से किसी भी प्रकार के दोष से युक्त आहार को ग्रहण नहीं करना चाहिए। इनमें से तत्काल के आटे से लिप्त हाथ आदि से लेने को दोष बताया है, उसका कारण यह कि तत्काल के प्राटे में एकेन्द्रिय जीवों के प्रात्मप्रदेश रहने की सम्भावना रहती है तथा अनछाना होने से उसमें अनाज के प्रखण्ड दानों के रहने की सम्भावना है / इसलिए यह सचित्त-स्पर्श दोष है। 51. (क) 'पुरेकम्म नाम जं साधूणं दट्ठणं हत्थं भायणं धोवइ तं पुरेकर मं भण्णइ / ' –जिन. चू., पृ.१७८ (ख) पुढविमो मत्तग्रो। कंसमयं भायणं / निशीथ 4 / 39 चूणि, 52. (क) उदकाद्रो नाम गल दुदकबिन्दुयुक्तः / सस्निग्धो नाम ईषदुदकयुक्त। -हारि. वृत्ति, पृ. 17 (ख) ससिणिद्ध-जं उदगेण किंचि णिद्ध, ण पुण गलति / –अ. च,, पृ. 108 / (ग) 'ऊष:-पांशुक्षारः / गैरिका धातुः / वणिका पीतमत्तिका / श्वेतिकाः शुक्लमत्तिका।। -- हा. वृ., पत्र 170 53. (क) सोरट्टिया तवरिया सुवण्णस्स अोधकरणमट्टिया / (ख) “सौराष्ट्र या ढकी तुवरी पर्पटी कालिकासती / सुजाता देशभाषायां 'गोपीचन्दनमुच्यते / / ' ---शा. नि., पृ. 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org