________________ 174] [दशवकालिकसूत्र अभाव' नहीं, किन्तु 'जीववधरूप असंयम' समझना चाहिए और साधु के निमित्त से इस प्रकार का असंयम करके ग्राहार लाकर देने वालो से वह पाहार नहीं लेना चाहिए। 6 पडिआइक्खे :-(1) त्याग (प्रत्याख्यान) कर दे, (2) निषेध कर दे, अथवा (3) कह दे / ___तारिसं : तात्पर्य यह विशेषण (तादृशं) भक्त-पान का है। अर्थात् ऐसा पाहार, जो कि अमुक भिक्षादोष से युक्त हो / 48 संहत, निक्षिप्त आदि दोषों का स्पष्टीकरण---संहृत-दोष-श्रमण के लिए पाहार एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकालना और उसमें जो अनुपयोगो अंश हो उसे बाहर फेंकना संहरण है। संहरण करके आहार दिया जाए तो वह संहृत नामक दोष युक्त है। इसकी चतुभंगी इस प्रकार है--(१) अचित्त (प्रासूक) बर्तन से अचित्त (प्रासूक) बर्तन में प्राहार निकाले, (2) प्रासूक बर्तन से अप्रासुक बर्तन में आहार निकाले, (3) अप्रासुक बर्तन से प्रासुक बर्तन में ग्राहार निकाले और (4) अप्रासुक बर्तन में से अप्रासुक बर्तन में प्राहार निकाले। इसी प्रकार सचित्त और अचित्त के मिश्रण को भी संहरण कहते हैं। इसकी भी चौभंगी होती है-(१) सचित्त में सचित्त मिलाना, (2) सचित्त में अचित्त मिलाना, (3) अचित्त में सचित्त मिलाना और (4) अचित्त में अचित्त मिला देना / पिण्डनियुक्ति में इसका विशेष स्पष्टीकरण किया गया है / अचित्त बर्तन में से भी अचित्त बर्तन में निकालने में दोष इसलिए है कि कदाचित् बड़े वजनदार बर्तन में से छोटे वर्तन में निकालने, उस बर्तन को उधर-उधर करने में पैर दब जाए, गर्म वस्तु पैर पर या अंग पर उछल कर पड़ जाय, अथवा छोटे बर्तन में से भारीभरकम बर्तन में निकालने में उसे उठाकर साधु को देने के लिए लाने में दाता को अत्यन्त कष्ट होगा / अचित्त देय वस्तु को सचित्त पर रखना 'निक्षिप्त' दोष है। हरी वनस्पति, सचित जल, अग्नि प्रादि सचित्त का स्पर्श करना, या सचित्त से रगडना 'घदित' दोष है। यद्यपि हिलाना, अवगाहन करना और चलाना, ये तीनों दोष सचित्त स्पर्श के अन्तर्गत आ जाते हैं, तथापि विशेषरूप से समझाने के लिए इनका उल्लेख किया गया है / ये चारों दोष एषणा के 'दायक' नामक छठ दोष में आ जाते हैं।५० 46. (क) दशव. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 175 / (ख) दसवेयालियं (मु. नथ.), पृ. 225 47. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 184 / (ख) दशवे. (प्राचारमणिमंजूषा टीका), पृ. 411 48. तारिसं भत्तपाणं तु परिवज्जए। -अग. चू., पृ. 107 49. साहटु जाम अन्न मि भायणे साहरिउ (छोरण) देंतितं. 'जहापिंडनिज्जुत्तीए / –जिन. चूणि, पृ. 178 50. (क) तत्थ फासुए फासुयं साहरइ 1, फासुए अफासुयं साहरइ 2, अफासुए फासुर्य साहरइ 3, अफासुए अफासुयं साहरति 4 / भंगाणं पिंडनिज्जुत्तीए विसेसत्थो / —जिन. चूणि, पृ. 178 (ख) पिण्डनियुक्ति 565 से 571 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org