________________ 162] [दशवकालिकसूत्र विवेचन—निषिद्ध एवं विहित गृह तथा प्रकोष्ठ–प्रस्तुत 6 सूत्र-गाथाओं (99 से 104 तक) में कुछ कुलों (घरों) में तथा विहित घरों के कमरों में प्रवेश का निषेध किया है, जबकि कुछ कुलों में प्रवेश का विधान किया है। प्रीतिकर कुल में प्रवेश का विधान किया गया है / निषिद्ध कुल तथा प्रकोष्ठ ये हैं१. प्रतिक्रुष्ट कुल में 7. आँखों से प्राणी न देखने वाले, नीचे 2. मामक कुल में द्वार के अन्धेरे कोठे (कमरे) में 3. अप्रीतिकर कुल में 8. जहाँ फूल, बीज आदि बिखरे हों 4. आज्ञा लिए बिना सन का पर्दा उस कोठे में हटा कर 6. तत्काल लीपे हुए या पानी से 5. बिना वस्त्रादि से ढंके द्वार को भीगे हए कोठे में खोल कर 10. भेड, बालक, कुत्ते या बछड़े को 6. प्राज्ञा लिए बिना कपाट खोल कर द्वार पर से हटा कर या इन्हें लांघ कर कोठे में.... प्रतिकुष्ट कुल : अर्थ, व्याख्या एवं प्राशय-प्रतिक्रुष्ट शब्द का अर्थ है-(१) निषिद्ध, (2) निन्दित (3) गहित और (4) जुगुप्सित / प्रतिक्रुष्ट दो प्रकार के होते हैं. अल्पकालिक और७ यावत्कालिक / मृतक, सूतक आदि वाले घर थोड़े समय के लिए (अल्पकालिक) प्रतिक्रुष्ट हैं और डोम, मातंग आदि के घर यावत्कालिक (सदैव) प्रतिक्रुष्ट हैं। प्राचारांग सूत्र में कुछ अजूगुप्सित एवं अहित कुलों के नामों का उल्लेख करके 'ये और ऐसे ही अन्य कुल' कहकर अतिदेश कर दिया है / परन्तु जुगुप्सित और गर्हित कुल कौन-से हैं ? उनको पहिचान क्या है ? यह आगमों में स्पष्टतः नहीं बताया / यद्यपि निशीथ सूत्र में जुगुप्सनीय कुल से भिक्षा लेने का प्रायश्चित्त बताया है। टीकाकार जुगुप्सिन और गर्हित कुल से भिक्षा लेने पर जैनशासन की लघुता होना बताते हैं / 28 वर्तमान में प्रतिक्रुष्ट कुल वह समझा जाना चाहिए, मांसाहारी, मद्यविक्रयी, जल्लाद, चाण्डाल क्रूरकर्मा व्यक्ति का घर या जहाँ खुलेग्राम मांस पड़ा हो / 26 मामगं--मामक : जो गहपति इस प्रकार से निषेध कर दे कि मेरे यहाँ कोई साधु-साध्वी भिक्षा के लिए न आए वह मामक गृह कहलाता है / उस घर में भिक्षार्थ प्रवेश करने का निषेध है। 27. (क) पडिकुट्ठ निंदितं, तं दुविहं-इत्तरियं प्रावकहियं च / इत्तरियं मयगसूतगादि, आवकहितं चंडालादी। ---अगस्त्य चूणि, पृ. 104 / (ख) एतन्न प्रविशेत् शासनलघुत्वप्रसंगात् / -हारि. वृत्ति, पत्र 166 (ग) प्राचारांग चू., 1123, (घ) निशोथ. 16 / 27 28. (क) दसवेवालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 213-214 (ख) दशवै. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी), पृ. 163 29. (क) दशव., वही, पृ. 163 (ख) "मा मम घरं पविसंतु त्ति मामक: सो पुण पंतयाए इस्सालयत्ताए वा' -अ.च.,. 1.4 (ग) मामकएतद् वर्जयेत् भण्डनादिप्रसंगात् / -हारि. वृत्ति, पत्र 166 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org