________________ 160] [दशवकालिकसूत्र मंत्रणास्थान को या परामर्श करने के एकान्तस्थान को संक्लेशकर (असमाधिकारक) मान कर दूर से परित्याग करे / गुह्यस्थानों या मंत्रणास्थानों में जाने से साधु के प्रति स्त्री-अपहरण या मंत्रणाभेद की शंका होने से उसे व्यर्थ ही पीडित या निगहीत किया जा सकता है / 25 भिक्षाचर्या के समय साधु-साध्वी की मुद्रा एवं चित्तवृत्ति फैसी हो?-यह प्रस्तुत दो गाथासूत्रों (93-94) में बताया गया है / इसके लिए शास्त्रकार ने 9 मंत्र बताए हैं / इनकी व्याख्या इस प्रकार है-(१) अनुन्नत-उन्नत के दो प्रकार-द्रव्योन्नत-ऊँचा मुंह करके चलने वाला, भावोन्नत--- जाति आदि 8 मदों से मत्त-अक्कड़ / भिक्षाचरी के समय दोनों दृष्टियों से साधु-साध्वी को अनुन्नत (उन्नत न) होना आवश्यक है। द्रव्योन्नत ईर्यासमिति शोधन नहीं कर सकता, भावोन्नत मदमत्त होने से नम्र नहीं हो पाता। (2) नावनत-अवनत के दो प्रकार द्रव्य-अवनत-झुक कर चलने वाला, भाव-अवनत-दैन्य, दुर्मन एवं हीनभावना से ग्रस्त / द्रव्य-अवतन-हास्यपात्र बनता है, बकभक्त कहलाता है, क्योंकि वह नीचे झुक कर फूक फूक कर चलने का ढोंग करता है / भाव-अवनत क्षुद्र एवं दैन्यभावना से भरा होता है। साधुवर्ग इन दोनों से दूर रहे / (3) अप्रहृष्ट-हंसता हुआ या अतिहर्षित अथवा हंसी-मजाक करता हुअा न चले / (4) अनाकुल-मन-वचन-काया की आकुलता से रहित या क्रोधादि से रहित / गोचरी के लिए चलते समय मन में नाना संकल्प-विकल्प करना या मन में सूत्र-अर्थ का चिन्तन करना मन की व्याकुलता है / विषयभोग को बातें करना या शास्त्र के किसी पाठ का अर्थ पूछना या उसका स्मरण करना, वाणी की प्राकुलता है तथा अंगों की चपलता शरीर की प्राकलता है। (5) विषयानुरूप इन्द्रियदमन-इन्द्रियों का अपने-अपने विषयानुसार दमन करना अर्थात्-मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दादि विषयों पर राग-द्वेष न करना / (6) अद्र तगमन-'दवदव' का अर्थ-दौड़ते हुए चलना। इससे प्रवचनलाघव और संयमविराधना दोनों हैं। संभ्रम-चित्तचेष्टा है; द्रवद्रव कायिक चेष्टा है, यही दोनों में अन्तर है। अतः द्रुतगमन साधुवर्ग के लिए निषिद्ध है / (7) अभाषणपूर्वक गमन-भिक्षाटन करते समय भाषण-संभाषण न करना। अन्यथा भाषासमिति, ईर्यासमिति एवं वचनगुप्ति का पालन दुष्कर होगा / (8) हास्यरहितगमनस्पष्ट है / हंसी-मखौल करते हुए भिक्षाटन के समय गमन करने से प्रवचनहीलना, भाषादोष आदि होते हैं। (9) उच्च-नीच कुल में गमन-उच्च कुल दो प्रकार के-(१) द्रव्य-उच्चकुल-प्रासाद, हवेली, आदि ऊँचे भवनों वाले कुल यानी घर (2) भाव उच्चकुल-जाति, धन, विद्या आदि से समृद्ध व्यक्तियों के भवन / अवच कुल (द्रव्य से) तृणकुटी, झोपड़ी प्रादि द्रव्यतः अवचकुल या नीचा कुल है, तथा जाति, वंश, धन, विद्या प्रादि से हीन व्यक्तियों के घर भाव से अवचकुल कहलाते हैं। साधु को सामुदानिक भिक्षा समभाव से उच्च-प्रवच सभी कुलों (घरों) से करनी चाहिए। 25. रणो रहस्सठाणाणि गिहवईणं रहस्सठामाणि, प्रारक्खियाण रहस्सठाणाणि संकणादिदोसा भवंति, चकारेण अण्णोवि पुरोहियादि गहिया, रहस्सठाणाणि नाम गुज्झोवरगा, जत्थ वा राहस्सियं मंतेति / -जिनदास चूणि, पृ. 174 26. जिन. चूणि, पृ. 172, 173, हारि, वृत्ति पृ. 166 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org