________________ 166] [दशयकालिकसूत्र भिक्षा के लिए घर में प्रविष्ट मुनि का दृष्टिसंयम एवं वाणीसंयम-दृष्टिसंयम के लिए यहाँ तीन पद दिये हैं। इन तीनों की व्याख्या इस प्रकार है (1) असंसक्तावलोकन:-(१) आसक्त दृष्टि से न देखे, अर्थात्-मुनि स्त्री की दृष्टि में दष्टि गड़ा कर न देखे, स्त्री के अंगोपांगों को न देखे / ये दोनों आसक्त दष्टि के प्रकार हैं। इसका अर्थ यों भी किया गया है—गृहस्थ के यहाँ रखे हुए आहार, वस्त्र तथा अन्य शृगारप्रसाधन आदि की चीजों को आसक्तिपूर्वक न देखे। इस प्रकार के आसक्तिपूर्वक दृष्टिपात के निषेध के मुख्य कारण तीन बताए हैं-(१) ब्रह्मचर्यव्रत की विराधना-क्षति, (2) लोकापवाद-श्रमण को इस प्रकार टकटकी लगाकर देखने पर उसे कामविकारग्रस्त मानते हैं, (3) मानसिक रोगोत्पत्ति। अगस्त्यचूणि में इसका अर्थ किया गया है-मुनि जहां खड़ा रह कर पाहार ले और दाता जहां से प्राकर भिक्षा दे, ये दोनों स्थान असंसक्त (स आदि जीवों से असंकुल) होने चाहिए / इस दृष्टि से यहां मूल में बताया गया है,-मुनि असंसक्त स्थान का अवलोकन करे।। (2) नातिदूरावलोकन-मुनि वहीं तक दृष्टिपात करे, जहाँ तक भिक्षा के लिए देय वस्तुएँ रखी और उठाई जाएँ, उससे आगे लम्बी दृष्टि न डाले / घर में दूर-दूर तक रखी वस्तुओं पर दृष्टिपात करने से साधु के प्रति शंका हो सकती है, इसलिए अतिदुरावलोकन का निषेध किया गया है। अगस्त्यचणि में इसका अर्थ किया गया है-मुनि अतिदूरस्थ प्राणियों को नहीं देख सकता इसलिए वैकल्पिक अर्थ हुआ-भिक्षा देने के स्थान से अतिदूर रह कर अवलोकन नहीं करे--अर्थात् खड़ा न रहे / (3) उत्फुल्लनयनानवलोकन : दो अर्थ :- (1) विकसित नेत्रों से (आँखें फाड़ कर) न देखे, (2) उत्सुकतापूर्ण नेत्रों से न देखे / इस प्रकार गृहस्थ के घर में यत्र-तत्र पड़े हुए भोग्य पदार्थ, शय्यादि सामग्री, स्त्री, प्राभूषण आदि को अाँखें फाड़ फाड़ कर देखने से साधु के प्रति लघता या भोगवासनाग्रस्तता का भाव उत्पन्न हो सकता है।३८ वाणीसंयम भिक्षा के लिए प्रवेश करने पर यदि दाता कुछ भी न दे, थोड़ा दे, नीरस वस्तु दे, अथवा कोई कठोर वचन कह दे, तो 38. (क) असंसतं पलोएज्जा नाम इत्थियाए दिदि न बंधज्जा, अहवा अंगपच्चंगाणि अणिमिस्साए दिदीए न जोएज्जा / ' किं कारण ? जेण तत्थ बंभवयपीला भवइ, जोएंतं वा दण अविरयगा उड्डाहं करेज्जापेच्छह समणयं सबियारं / --जि. च., पृ. 176 / (ख) 'रागोत्पत्ति-लोकोपघात-प्रसंगात् / ' -हारि. वृत्ति, पृ. 168 (ग) तावमेव पलोएइ, जाव उक्खेव-निवखे पासई / तनो परं घरकोणादी पलोयतं द?ण संका भवति / किमेस चोरो वा पारदारिओ बा होज्जा ? एवमादि दोसा भवति / -जि. चू., पृ. 176 (घ) नाति दूरं प्रलोकयेत्-दायकस्यागमनमात्रदेशं प्रलोकयेत् / - हारि. वृत्ति, पृ. 168 (3) 'तं च णातिदूरावलोयए अतिदूरत्थो पिपीलिकादीणि ण पेक्खति ।""अ. च., पृ. 106 (च) 'उप्फुल्ल नाम विगसिएहिं णयणे हिं इत्थीसरीरं रयणादी वा ण णिज्झाइयव्वं / ' -जिन चूणि, पृ. 176 (छ) ..."न बिणिज्झाए त्ति, न निरीक्षेत गृहपरिच्छदमपि, अदृष्टकल्याण इति लाघवोत्पत्तेः / -हारि. वृत्ति, पृ. 168 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org