________________ 152] [वशवकालिक सूत्र सम्पन्न घरों की ओर भिक्षाचारी के लिए प्रस्थान करने की भिक्षु की मूच्छितवृत्ति न हो। अथवा शब्दादि विषयों के प्रवाह में मूच्छित-पासक्त होकर भिक्षाचरी के उद्देश्य को भुला न दे / अनुद्विग्नता का अर्थ है—मन में व्याकुलता न होना / मुझे भिक्षा मिलेगी या नहीं ? पता नहीं, कैसी भिक्षा मिलेगी? इस प्रकार की वृत्ति उद्विग्नता है / साधु को उद्विग्न हो कर शीघ्र-शीघ्र भिक्षा के लिए चलने का निषेध है। अथवा भिक्षा के लिए तो चल पड़ा, किन्तु मन में याचनादि परीषहों का भय होना उद्विग्नता है, उक्त उद्विग्नता से मुक्त रहने वाला अनुद्विग्न है। इसलिए कहा गया-धीमे-धीमे चले / त्वरा से ईर्यासमिति का शोधन नहीं होता, उचित उपयोग नहीं रह पाता, प्रतिलेखन में प्रमाद होता है।' मिक्षाकालः-प्राचीनकाल में साधु की दैनिक चर्या विभाजित थी। सूर्योदय के पश्चात् प्रतिलेखनादि करके दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान और तत्पश्चात् तृतीय प्रहर में भिक्षाचर्या का विधान था। 'एगभत्तं च भोयणं' (एक बार भोजन करने) के नियम के अनुसार तो यही भिक्षाकाल उपयुक्त था किन्तु इसे सभी क्षेत्रों में भिक्षा का उपयुक्त समय नहीं माना जा सकता। इसलिए देश-कालानुसार प्राचार्यों ने सामान्यत: भिक्षाकाल उसे ही निर्धारित किया, कि जिस क्षेत्र में लोगों के भोजन का जो समय हो, वही उपयुक्त भिक्षाकाल है। इसीलिए यहाँ भिक्षा का कोई निर्धारित समय न बताकर सामान्यरूप से कहा गया है--'संपत्ते भिक्खकालम्मि' / (भिक्षा का समय हो जाने पर)। इस विधान के लिए गहस्थों के घरों में रसोई बनने से पहले या खा-पीकर रसोईघर बन्द कर देने के बाद भिक्षा के लिए जाना भिक्षा का अकाल है। अकाल में भिक्षाटन करने से अलाभ और प्राज्ञाभंग, दोनों स्थितियाँ उपस्थित होती हैं / 3 क्रमयोग : मावार्थ-क्रमयोग का अर्थ है-भिक्षा करने की क्रमिक विधि / / 1. (क) असंभंतो नाम सब्वे भिक्खायरा पविट्ठा, तेहिं उछिए भिक्खं न लभिस्सामित्ति काउं मा तुरेज्जा, तुरमागो य पडिलेहणापमादं करेजा, रियं वा न सोधेज्जा, उबयोगस्स ण ठाएज्जा, एवमादी दोसा भवति / तम्हा असंभंतेण पडिलेहणं काऊणं, उवयोगस ठायित्ता अरिए भिक्खाए गंतवं / -जिन. चूणि, पृ. 166 (ख) अमूच्छितः पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो, विहितानुष्ठानमिति कृत्वा, न तु पिण्डादावेवासक्त इति / (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमल जी), पृ. 198 (घ) अणुविग्गो अभीतो गोयरगताण परीसहोबसग्गाण / -अ. चू., पृ. 99 2. (क) पढम पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायई / तइयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीइ सज्झायं // -उत्त. 26 / 12 (ख) उत्सर्गतो हि तृतीयपौरुष्यामेव भिक्षाटनमनुज्ञातम् / –उत्तरा. बृहद्वृत्ति., अ. 30121 3. (क) "भिक्खाए कालो भिक्खाकालो तंमि भिक्खकाले संपत्ते।" --जिन. चणि, पृ. 166. (ख) सम्प्राप्ते--शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते, "भिक्षाकाले'भिक्षासमये / अनेनासंप्राप्ते भक्तपानपरणा-प्रतिषेधमाह, अलाभाशाखण्डनाभ्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति / हारि. वृत्ति, पत्र 163 4. दशव. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org