________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [137 73. जया मुंडे भवित्ताणं पन्वइए अणगारियं / तया संवरमुक्किट्ठ* धम्मं फासे अणत्तरं // 42 // 74. जया संवरमुक्किळं धम्म फासे अणुत्तरं / तया धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसं कडं // 43 // 75. जया धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसं कडं। तया सम्वत्तगं नाणं दसणं चाभिगच्छई // 44 // 76. जया सव्वत्तगं नाणं दसणं चाभिगच्छई। तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली // 45 // 77. जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली / तया जोगे निरु भित्ता सेलेसि पडिवज्जई // 46 // 78. जया जोगे निरु भित्ता सेलेसि पडिबज्जई / तया कम्म खपित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरओ // 47 // 79. जया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छद नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो भवइ सासओ // 48 // [70] जब (मनुष्य) पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को जान लेता है, तब जो भी दिव्य (देव-सम्बन्धी) और मानवीय (मनुष्यसम्बन्धी) भोग हैं, उनसे विरक्त (निर्वेद को प्राप्त) हो जाता है / / 39 // [71] जब साधक दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है, तब प्राभ्यन्तर और बाह्य संयोग का परित्याग कर देता है / / 40 / / [72] जब साधक अाभ्यन्तर और बाह्य संयोगों का त्याग कर देता है, तब वह मुण्ड हो कर अनगारधर्म में प्रवजित हो जाता है / / 41 / / [73] जब साधक मुण्डित हो कर अनगारवृत्ति में प्रवजित हो जाता है, तब उत्कृष्ट-संवररूप अनुत्तरधर्म का स्पर्श करता है / / 42 / / [74] जब साधक उत्कृष्ट-संवररूप अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है, तब अबोधिरूप पाप (कलुष) द्वारा किये हुए (संचित) कर्मरज को (प्रात्मा से) झाड़ देता है (पृथक् कर देता है) / / 43 / / [75] जब साधक अबोधिरूप पाप द्वारा कृत (संचित) कर्म रज को झाड़ देता है, तब सर्वत्र व्यापी ज्ञान और दर्शन (केवलज्ञान और केवलदर्शन) को प्राप्त कर लेता है // 44 // * पाठान्तर मुक्कट्ठ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org