________________ चतुर्थं अध्ययन : षड्जीवनिका] 'पढमं नाणं तओ दया।' अर्थात्-प्रथम जीवादि का ज्ञान होना चाहिए, तत्पश्चात् उनकी दया। जिससे स्वपर का बोध हो, उसे ज्ञान कहते हैं। यहाँ दया शब्द से उपलक्षण से समस्त अहिंसात्मक क्रियाओं का ग्रहण होता है। __ सभी संयमी इस सिद्धान्त में स्थित जो संयत हैं, अर्थात् 17 प्रकार के संयम को धारण किये हुए हैं, उन्हें सर्व जीवों का ज्ञान भी होता है। जिनका जीव-ज्ञान पूर्ण नहीं होता, उनका संयम भी पूर्ण नहीं होता। पूर्ण संयम (सर्वभूतसंयम) के बिना अहिंसा अधूरी है, वास्तव में सर्वभूतों के प्रति संयम ही अहिंसा है। यही कारण है कि जीव-अजीव के भेदज्ञाता निर्ग्रन्थ श्रमणवर्ग की दया जहाँ पूर्ण है, वहाँ जीव-अजीव के विशेष भेद से अनभिज्ञ अन्य मतानुयायी साधकों को दया वैसी व्यापक नहीं है / उनकी दया या तो मनुष्यों तक ही सीमित है, या फिर पशु-पक्षियों तक या कीट-पतंगों तक / इसका कारण है उनमें पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीवों के ज्ञान का अभाव / इसीलिए सभी निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी सभी जीवों के ज्ञानपूर्वक क्रिया (दया प्रादि चारित्रधर्म) का पालन करने की प्रतिपत्ति (मान्यता) में स्थिति होते हैं / अज्ञानी : श्रेय और पाप को जानने में असमर्थ प्रस्तुत में दो पंक्तियों द्वारा अज्ञानी की असमर्थ दशा का वर्णन किया गया है। (1) अन्नाणी कि काही ? इसका तात्पर्य है कि वह अज्ञानी, जिसे जीवअजीव का बोध नहीं है, उसे यह भान ही नहीं होता कि अहिंसा क्या है हिंसा क्या है ? या अमुक कार्य करना है, अमुक कार्य नहीं, क्योंकि उससे जीववध होगा, जिसका कद परिणाम भोगना पड़ेगा। अतः जिसे जीव-अजीव का ज्ञान नहीं, वह अहिंसावादी नहीं हो सकता / अहिंसा का समग्र विचारक हुए बिना अहिंसा का पूर्ण पालन हो नहीं सकता। जिस अज्ञानी को साध्य, उपाय और फल का परिज्ञान नहीं है, वह कैसे श्रेय दिशा में प्रवृत्त होगा? वह सर्वत्र अन्धे के समान है। उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के निमित्त का अभाव होता है / 10 (2) कि वा नाहीइ छेय-पावगं अज्ञानी श्रेयहितकर-संयम को, और पाप-अहितकर या असंयम को कैसे जान सकता है ? जिसे जीव और अजीव का ज्ञान नहीं, उसे किसके प्रति, कैसे संयम करना है, या संयम में हित है, असंयम में अहित है, इस 108. 'ज्ञानं स्व-परस्वरूप-परिच्छेदलक्षणम् / ' -प्राचारमणिमंजूषा टीका, भा. 1, पृ. 300 109. (क) 'सव्वसंजता पाणपुव्वं चरित्तधम्म पडिवालेंति / ' -अ. चू., पृ. 93 (ख) ..."साधूर्ण चेव संपुष्णा दया जीवाजीवविसेसं जाणमाणाणं, ण उ सक्कादीणं जीवाजीवविसेसं अजाणमाणाणं संपुष्णा दया भवइ त्ति, चिट्ठा नाम अच्छइ ।""सव्वसंजताणं जीवाजीवादिसू ण सत्तरसविधो संजमो भवइ।' -जि., च., पृ. 160-161 (ग) एवं–अनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वकक्रियाप्रतिपत्तिरूपेण, तिष्ठति-आस्ते, सर्वः संयतः प्रव्रजितः / -हारि. वृत्ति, पत्र 157 110. (क) अण्णाणी जीवो, जीवविष्णाणविरहितो सो किं काहिति ? –प्र. चू., पृ. 93 (ख) यः पुनः 'अज्ञानी'-साध्योपाय-फलपरिज्ञानविकल: स कि करिष्यति ? सर्वत्रान्धतल्यत्वात प्रवृत्ति-निवृत्तिनिमित्ताभावात्। -हारि. वृत्ति, पृ. 157 / (ग) दसवेया० (मु. नथ.) पृ. 165 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org