________________ 1081 [दशकालिकसूत्र के वियोग से ही जीव को अत्यन्त दुःख उत्पन्न होता है, इसीलिए 'प्राणातिपात' शब्द का ग्रहण किया गया है / इसी कारण प्रथम महाव्रत का नाम प्राणातिपात-विरमण रखा गया है / 17 सर्व-प्राणातिपात-प्रस्तुत पाठ में सभी प्रकार के प्राणातिपात के सर्वथा त्याग (प्रत्याख्यान) का कथन है। उसमें सर्वप्रथम प्राणियों के 4 मुख्य प्रकार दिये गये हैं-सूक्ष्म, बादर, त्रस और स्थावर / सक्षम वे जीव हैं, जिनके शरीर की अवगाहना अत्यन्त अल्प होती है, और बादर (स्थल) वे जीव हैं, जिनके शरीर की अवगाहना बड़ी होती है। सूक्ष्मनामकर्म के उदय के कारण जो जीव अत्यन्त सूक्ष्म है, उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है। क्योंकि ऐसे सूक्ष्म जीव की काया द्वारा हिंसा संभव नहीं है / स्थूल दृष्टि 58 से सूक्ष्म या स्थूल अवगाहना वाले जीवों को ही यहाँ सूक्ष्म या बादर कहा गया है। अस और स्थावर-ऊपर जो सूक्ष्म और बादर जीव कहे गये हैं, उनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं--त्रस और स्थावर / जो त्रास या उद्वेग पाते हैं, वे त्रस हैं, जो स्थान से विचलित नहीं होते-एक स्थान पर ही अवस्थित रहते हैं, वे स्थावर कहलाते हैं। कुंथु आदि सूक्ष्म त्रस हैं, और गाय, बैल आदि बादर त्रस हैं, वनस्पति आदि सूक्ष्म स्थावर हैं, और पृथ्वी आदि बादर स्थावर हैं।" प्राणातिपात किन साधनों से और किस-किस प्रकार से ?–सर्वप्राणातिपात के सन्दर्भ में ही यहां बताया गया है कि प्राणातिपात मन, वचन और शरीर, इन तीन साधनों (योगों) से, तथा कृत, कारित और अनुमोदन से होता है। इन सब प्रकारों से होने वाले प्राणातिपातों से नवदीक्षित साधु-साध्वी विरत होने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं / 6deg इस विषय की व्याख्या पूर्वपृष्ठों में की जा चुकी है। 57. (क) 'पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास-निःश्वासमथान्यदायुः / प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा // ' (ख) प्राणा इन्द्रियादयस्तेषामतिपातः प्राणातिपात: जीवस्य महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव / -हारि. वृत्ति, पत्र 144 58. (क) सुहुमं अतीव अप्पसरीरं तं वा, वातं रातीति वातरो महासरीरो ते वा। अ. चू., पृ. 81 (ख) सुहुमं नाम जं सरीरावगाहणाए सुटू, अप्पमिति, बादरं नाम थूल भण्णइ। —जि. च. पृ. 146 (ग) अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिग ह्यते, न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मः, तस्य कायेन व्यापादनासंभवात् / -हारि. टीका, पत्र 145 59. (क) तसं वा-सी उद्वेजने' त्रस्यतीति त्रस:, तं वा, 'थावरो' जो थाणातो ण विचलति तं वा / .."सब्वे पमारा ण हतवा।। ----अगस्त्य. चूणि, पृ. 81 (ख) "तत्थ जे ते सुहमा बादरा य ते दुविहा, तं. तसा य थावरा वा / तत्थ तसंतीति तसा, जे एगमि ठाणे अवट्ठिया चिट्ठति ते थावरा भण्णं ति / " -जिन. चूणि, पृ. 146-147 (ग) “सूक्ष्मत्रसः कुन्थ्वादिः स्थावरो वनस्पत्यादिः, बादरस्त्रसो गवादिः, स्थावरः पृथिव्यादिः।" -हारि. वृत्ति, पत्र 145 60. तिविह ति-मणो-वयण-कायातो, तिविहेणं ति करण-कारावण-अणुमायणाणि। ---अगस्त्य.चूणि, पृ. 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org