________________ 114] [वशवकालिकसूत्र और पालन करना चाहिए। प्रात्महित का अर्थ मोक्ष (कर्ममुक्ति) है। इसमें कर्म, जन्म-मरणरूप संसार आदि से मुक्ति, आत्मशुद्धि अथवा आत्मकल्याण, या उत्कृष्ट मंगलमय धर्म-पालन से प्रात्मरक्षा आदि का समावेश हो जाता है / प्रात्महित के विपरीत अन्य किसी उपर्युक्त भौतिक या लौकिक हेतु से व्रत ग्रहण करने पर व्रत का अभाव हो जाता है, आत्महित से बढ़कर कोई स्वाधीन सुख नहीं है / इसीलिए भगवान् ने इहलौकिक-पारलौकिक सुखाभिलाषा, समृद्धि या भोगाकांक्षा के हेतु प्राचार का स्वीकार या पालन करने की अनुज्ञा नहीं दी।७४ उपसंपज्जित्ताणं विहरामि : भावार्थ-उपसम्पद्य का अर्थ है स्वीकार करके / इसका भावार्थ यह है कि गुरु के समीप, सुसाधु (शिष्य) की विधि के अनुसार इन (महाव्रतों तथा रात्रिभोजनविरमण व्रत) को ग्रहण करके विहरण-विचरण करूंगा। वृत्तिकार के अनुसार ऐसा न करने पर अंगीकृत व्रतों का भी अभाव हो जाता है। तात्पर्य यह है कि गुरुचरणों में व्रतों का प्रारोहण करके , उनका सम्यक् अनुपालन करता हुया मैं अप्रतिबद्ध रूप से अभ्युद्गत विहारपूर्वक ग्राम, नगर, पट्टन आदि में विचरण करूगा / अगस्त्यचूर्णि में इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार किया है—अथवा 'भगवान् से गणधर पांच महाव्रतों के अर्थ को सुन कर ऐसा कहते हैं कि हम इन्हें ग्रहण करके विहार करेंगे।' अहिंसा महाव्रत के सन्दर्भ में : षटकाय-विराधना से विरति [49] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे, दिया वा, राओ वा, एगओवा, परिसागो बा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा; से पुढवि वा भित्ति वा सिलं वा लेलुवा ससरक्खं का कार्य ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कट्ठण वा कलिचेण वा* अंगुलियाए वा सलागाए वा सलागहत्थेण वा नाऽऽलिहेज्जा, न विलिहेज्जा, न घट्टज्जा, न भिदेज्जा, अन्नं नाऽऽ लिहावेज्जा, न विलिहावेज्मा, न घट्टावेज्जा, न भिदावेज्जा, अन्न प्रालिहंतं वा, विलिहंतं वा, घट्टतं वा, भिदंतं वा, न समणुजाणेजा। जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमि न कारवेमि, करेंतं+ पि अन्नं न समणुजाणामि / तस्स भंते ! पडिक्कमामि निदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि // 18 // [50] से भिक्खू वा मिक्खुणो वा संजय विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे, दिया था राम्रो वा एगओ वा परिसागप्रो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा, से उदगं वा प्रोसं वा हिमं वा महियं वा करगं वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं वा, उदओल्लं वा कार्य उदओल्लं वा वत्थं, ससिणिद्ध वा कायं, ससिद्धि वा वत्थं, नाऽऽमुसेज्जा, न संफुसेज्जा, न प्रावीलेज्जा, न पवीलेज्जा न अक्खोडेज्जा, न पक्खो 74. (क) अत्तहियट्ठताए—अप्पणो हितं-जो धम्मो मंगलमिति भणितं तदट्ठ। -अगस्त्य चूणि, पृ. 86 (ख) अात्महितो-मोक्षस्तदर्थ, अन्येनान्यार्थ तत्त्वतो व्रताभावमाह, तदभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादि भावात् / -हारि. वृत्ति ,पत्र 150 पाठान्तर-* किलिचेण वा। + करंतं / 0ससणिद्ध। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org