________________ चतुर्थ अध्ययन : षड़जीवनिका] [121 पृथ्वीकायविराधना के साधन-काष्ठ, किलिंच आदि को शास्त्रकार ने पृथ्वीकायविराधना के साधन माने हैं / किलिचेण : कलिजेण : दो अर्थ-किलिच-बांस की खपच्ची को कहते हैं, कलिज कहते हैं, छोटे-से लकड़ी के टुकड़े को / सलामहत्येण : दो अर्थ-(१) लकड़ी, तांबा या लोहे का अनगढ़ या गढ़ा हुप्रा टुकड़ा शलाका, उनका हस्त अर्थात् समूह / (2) सलाई की नोक / पृथ्वी-विराधना को विभिन्न क्रियाओं का अर्थ-आलेखन, विलेखन : पांच अर्थ-(१) एक बार या थोड़ा खोदना, बार-बार या अधिक खोदना, (2) एक बार या थोड़ा कुरेदना, बार-बार या अधिक कुरेदना, (3) लकीर खींचना, (4) विन्यास करना—घिसना अथवा (5) चित्रित करना / घट्टन-चलाना या हिलाना, संघट्टा (स्पर्श) करना / भेदन-भेदन करना, तोड़ना, विदारण करना, दो-तीन आदि भाग करना / तात्पर्य यह है कि भिक्षु पृथ्वी कायिक जीवों का किसी भी साधन से, किसी भी अवस्था में किसी भी स्थान या समय में मन-वचन-काया से, कृत-कारित-अनुमोदित रूप से विराधन नहीं करता।८४ अप्कायिक जीवों के विविध प्रकार और अर्थ-उदक : भूमि के आश्रित या भूमि के स्रोतों में बहने वाला भौम जल / ओस-(१) रात्रि में, पूर्वाह्न या अपराह्न में गिरने वाला सूक्ष्म जलकण, या शरऋतु की रात में मेघ से उत्पन्न स्नेह-विशेष / महिका-शिशिर ऋतु में अन्धकारजनक जो तुषार या पाला पड़ता है, उसे महिका, धूमिका (धंपर धुंध) या कोहरा कहते हैं / करक-आकाश से वर्षा के साथ गिरने वाले कठिन उदकखण्ड-पोले / हरतनुक-(१) जिनदासचूणि के अनुसार--भूमि को भेद कर ऊपर उठने वाला जलबिन्दु, जो कि सील वाली जमीन पर रखे बर्तन के नीचे दिखाई देता है, (2) भूमि को भेदन कर तृणाग्र आदि पर विद्यमान औद्भिद जलबिन्दु / शुद्धोदक---अन्तरिक्ष 83. (क) 'किलिचो-वंसकप्परो।' —निशीथचणि,४।१०७ (ख) कलिजेण वा-क्षुद्रकाष्ठरूपेण / -हा. टी., पत्र 152 (ग) 'सलागा कट्ठमेव घडितगं, अपडितगं कट्ठ।' -अगस्त्यचूणि, पृ. 87 (घ) सलागा घडियाओ तंबाईणं / -जि. च. पृ. 154 / (ड.) 'सलागाहत्थानो वहयरियायो, अहवा सलागातो घडिल्लियाम्रो, तासि सलागाणं संघाग्रो सलागाहत्थो।' -जि. चू., पृ. 154 (च) शलाकया-अयःशलाकादिरूपया, शलाकाहस्तेन वा-शलाकासंघातरूपेण / -हारि. वृत्ति, पत्र 152 84. (क) 'ईषद् सकृद्वाऽऽलेखन, नितरामनेक्रशो वा विलेखनम् / ' हा. वृ.. पत्र 152 (ख) दशवै. (प्रा. आत्मा.) पृ. 92 (ग) प्रालिहणं नाम ईस, विलिहणं-विविहं लिहणं / -जि. चू., पृ. 154 (घ) दशवै. (प्रा. म. म. टीका) भा. 1, पृ. 275 (ङ) 'घट्टणं संचालणं / ' -अ. चू., पृ. 87 (च) दशवं. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी) पृ. 90 (छ) “भिदणं भेदकरणं / ' -अ. चू., पृ. 87 (ज) भेदो-विदारणम् / ----हा. टी., प. 152 (झ) भिंदणं दुहा वा तिहा वा करणं -जि. चू., पृ. 154 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org