________________ [119 चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] भिक्ष और भिक्षणी दोनों के लिए समान विशेषण--प्रस्तुत 6 सूत्रों के प्रारम्भ में जो चार विशेषण प्रयुक्त किये हैं, वे भिक्षु और भिक्षुणी दोनों के लिए हैं; भिक्षु उसे कहते हैं, जो भिक्षणशील या भिक्षाजीवी है, आहारादि प्रत्येक वस्तु याचना या भिक्षा करके लेता है / गेरुपा, भगवाँ या अन्य किसी प्रकार के रंग से रंगे हुए कपड़े पहनने वाले भी भिक्षा मांग कर जीवननिर्वाह करते हैं, इसलिए वे भी 'भिक्षु' कहलाने लगेंगे, इस प्राशय से शास्त्रकार ने निर्ग्रन्थ भिक्षु-भिक्षुणी की वास्तविक पहचान के लिए यहाँ संयत, विरत, प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा, ये विशेषण दिये हैं। संन्यासी या गेरुप्रा वस्त्र वाले साधु आदि स्वामी की आज्ञा के बिना भी जलाशय आदि से अपने हाथों से भी जल ले लेते हैं, तथा जब भिक्षा नहीं मिलती, तब वे स्वयं पचन-पाचनादि करते-कराते हैं, अथवा कंदमूल आदि स्वयं उखाड़कर ग्रहण तथा उपभोग कर लेते हैं / अतः जो भिक्षावृत्ति के सिवाय अन्य वृत्ति को कदापि स्वीकार नहीं करते, तथा 17 प्रकार के संयम से रत (संयत) हैं, पचन-पाचनादि-हिंसादि पापकर्मों से विरत हैं, वे ही वास्तव में भिक्षु-भिक्षुणी हैं। महाव्रत ग्रहण करने के बाद भिक्षुवर्ग किस स्थिति में पहुँचता है, उसका सरल सजीव चित्रण इन विशेषणों में किया गया है।७६ संयत-जो 17 प्रकार के संयम में सम्यक् प्रकार से अवस्थित हो, या जो सब प्रकार से यतनावान् हो / विरत --पापों से निवृत्त या बारह प्रकार के तप में विविध प्रकार से या विशेष रूप से रत / 'पापकर्मा' शब्द प्रतिहत और प्रत्याख्यात इनमें से प्रत्येक के साथ सम्बन्धित है / प्रतिहतपापकर्मा--जिसने ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में से प्रत्येक को हत किया हो वह / 8 प्रत्याख्यातपापकर्मा--- जिसने आस्रवद्वार (पापकर्म आने के मार्ग) का निरोध कर लिया हो / निर्ग्रन्थ भिक्षु प्रतिहत-पापकर्मा इसलिए कहलाता है कि वह महावत ग्रहण करने की प्रक्रिया में अतीत के पापों का प्रतिक्रमण, भविष्य के पापों का प्रत्याख्यान और वर्तमान में मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से पापकर्म न करने की प्रतिज्ञा कर चुका है। 76. (क) दशवं. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1 पृ. 268% (ख) दशवै. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.) पृ. 92 77. (क) 'संजतो एकीभावेण सत्तरसविहे संजमे द्वितो।' अगस्त्य चणि, पृ. 87 (ख) संजयो नाम सोभणेण पगारेण सत्तरसविहे, संजमे अवट्रिप्रो संजतो भवति / ' –जिनदासणि, पृ. 154 (ग) सामस्त्येन यत:-संयतः / / -हारि. वृत्ति, पत्र 152 (घ) 'पावेहितो विरतो पडिनियत्तो।'-- अग. च., पृ. 87 (ङ) 'अनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः / ' -हारि. वृत्ति, पृ. 182 (च) पावकम्मसद्दो पत्तेयं पत्तेयं दोसु वि बट्टइ, त.."पडिहयपावकम्मे, पच्चक्खायपावकम्मे य।। -जिन. चूर्णि, पृ. 154 78. (क) 'तत्थ पडियपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अट्ठकम्माणि पत्तेयं पत्त यं जेरण याणि, सो पडिहयपावकम्मो।' -जिनदासचूणि, पृ. 154 (ख) 'प्रतिहतं-स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 152 79. (क) “पच्चक्खाय-पावकम्मो नाम निरुद्धासवदुवारो भण्णति / ' -जिनदासचूणि, पृ. 154 (ख) 'प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः पुनद्धयभावेन पापं कर्म ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः / " (ग) दशवं. (मुनि नथमलजी) पृ. 147 –हारि. वृत्ति, पू. 152 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org