________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [117 आग में तपाए) और न प्रतापन करे (बार-बार या अधिक तपाए); (इसी प्रकार) दूसरों से न आमर्श कराए, (और) न संस्पर्श कराए अथवा न पापीडन कराए (और) न प्रपीडन कराए, अथवा न आस्फोटन कराए (और) न प्रस्फोटन कराए, अथवा न आतापन कराए (और) न प्रतापन कराए, (एवं) न पामर्श, संस्पर्श, आपीडन, प्रपीडन, प्रास्फोटन, प्रस्फोटन, आतापन या प्रतापन करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन करे। (भंते ! मैं अप्काय-विराधना से विरत होने की ऐसी प्रतिज्ञा) यावज्जीवन के लिए, तीन करण-तीन योग से, (करता हूँ।) (अर्थात्-) मैं मन से, वचन से, काया से ; (अप्काय को पूर्वोक्त प्रकार से विराधना) स्वयं नहीं करूंगा, (दूसरों से) नहीं कराऊंगा और करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन भी नहीं करूगा / भंते ! मैं उस (अतीत की अप्काय-विराधना) से निवृत्त होता हूँ उसकी निन्दा करता हूँ, (गुरुसाक्षी से) गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ // 16 // [51] संयत, विरत, प्रतिहत और प्रत्याख्यात-पापकर्मा वह भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में, अकेले (या एकान्त) में या परिषद में, सोते या जागते; अग्नि को, अंगारे को, मुर्मुर (बकरी आदि की मींगनों की आग) को, अचि (टूटी हुई अग्नि-ज्वाला) को, ज्वाला को अथवा अलात को, शुद्ध अग्नि को, अथवा उल्का को, न उत्सिचन करे (लकड़ी आदि देकर सुलगाए), न घट्टन करे, न उज्ज्वालन करे, [न प्रज्वालन करे], और न निर्वापन करे (बुझाए), (तथा) न दूसरों से उत्सेचन कराए, न घट्टन कराए, न उज्ज्वालन कराए, (न प्रज्वालन कराए), और न निर्वापन कराए (बझवाए): एवं न उत्सेचन करने, घदन करने, उज्ज्वालन करने, (प्रज्वालन करने और निर्वापन करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन करे; (भंते ! मैं इस प्रकार अग्निकाय की विराधना से विरत होने की प्रतिज्ञा) यावज्जीवन के लिए, तीन करण-तीन योग से (करता हूँ)। (अर्थात्-) मैं मन से, वचन से और काया से (अग्निसमारम्भ) नहीं करूंगा, न दूसरों से (अग्निसमारम्भ) कराऊंगा, और न (अग्नि-समारम्भ) करने वाले का अनुमोदन करूगा / भंते ! मैं उस (अतीत की अग्नि-विराधना) से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ और उस आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ // 20 // 52] संयत, विरत, प्रतिहत और प्रत्याख्यातपापकर्मा, वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी; दिन में या रात में, अकेले (एकान्त) में या परिषद् में, सोते या जागते, श्वेत चामर से, या पंखे से, अथवा ताड़ के पत्तों से बने हुए पंखे से, पत्र (किसी भी पत्ते या कागज आदि के पतरे) से, शाखा से, अथवा शाखा के टूटे हुए खण्ड से, अथवा मोर की पांख से, मोरपिच्छी से, अथवा वस्त्र से या वस्त्र के पल्ले से, अपने हाथ से या मुह से, अपने शरीर को अथवा किसी बाह्य पुद्गल को (स्वयं) फूक न दे, (पंखे आदि से) हवा न करे, दूसरों से फक न दिलाए, न ही हवा कराए तथा फक मारने वाले या हवा करने वाले अन्य किसी का भी अनुमोदन न करे / (भंते ! वायुकाय की इस प्रकार की विराधना से विरत होने की प्रतिज्ञा) यावज्जीवन के लिए तीन करण–तीन योग से (करता हूं।) अर्थात-मैं (पूर्वोक्त वायुकाय-विराधना) मन से, वचन से और काया से, स्वयं नहीं करूंगा, न दूसरों से कराऊंगा और नहीं करने वाले अन्य किसी का भी अनुमोदन करूंगा। भंते ! मैं उस (अतीत में हुई वायुकाय-विराधना) से निवृत्त होता है, उसकी (आत्मसाक्षी) से) निन्दा करता हूँ, (गुरुसाक्षी से) गर्दा करता हूँ और उस आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ / / 21 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org