________________ 122] [दशवकासिकसूत्र से गिरने वाला पानी। उदका–उपर्युक्त जलप्रकार के बिन्दुओं से प्रार्द्र-गीला शरीर या वस्त्र आदि / सस्निग्ध-जो स्निग्धता-जलबिन्दुरहित आर्द्रता से युक्त हो / 5 संभावित प्रकायिक विराधना की क्रियाएँ : अर्थ-प्रामर्श थोड़ा या एक बार स्पर्श / संस्पर्श-अधिक या बार-बार स्पर्श। आपीड़न-थोड़ा या एक बार पीलना, दबाना, निचोड़ना या पीड़ा देना. प्रपीडन-अधिक या बार-बार पीलना, दबाना, निचोडना या पीडा देना / प्रास्फोटनथोड़ा या एक बार झटकना, फटकारना, प्रस्फोटन-अधिक या बार-बार झटकना या फटकारना / आतापन—एक बार या थोड़ा-सा सुखाना या तपाना / प्रतापन-अधिक बार या अधिक सुखाना या तपाना / 86 तेजस्काय के प्रकार एवं अर्थ-अग्नि-लोहपिण्डानुगत स्पर्शग्राह्य लोहपिण्ड अथवा तेजस् / अंगार :दो अर्थ-(१) ज्वाला रहित कोयले, (2) लकड़ी के जलते हुए धू/ए से रहित टुकड़े / मुमुरकंडे या छाणे की प्राग, चोकर या भूसी को अग्नि, राख आदि में रहे हुए विरल अग्निकण, भोभर... - अत्यल्प अग्निकण से युक्त गर्म राख / अचि : तीन अर्थ-(१) दीप शिखा का अग्रभाग-लौ (2) आकाशानुगत परिच्छिन्न (टूटती हुई) अग्निशिखा, अथवा (3) मूल अग्नि से टूटती हुई ज्वाला / ज्वाला-प्रदीप्त अग्नि से सम्बद्ध अग्निशिखा---आग की लपट / अलात-तीन अर्थ-(१) भट्टे की अग्नि, (2) अधजली लकड़ी अथवा (3) मशाल (जलती हुई)। शुद्ध अग्नि-काष्ठादिरहित अग्नि / उल्का-आकाशीय अग्नि-विद्युत् आदि। तेजोलेश्या या पार्थिव मणि आदि का प्रकाश अचित्त है / शेष सूत्रोक्त अग्नियाँ सचित्त हैं जिनका उपयोग साधु-साध्वी के लिए वजित है। अग्निकाय-विराधना की क्रियाएँ : अर्थ उत्सेचन : उंजन-अग्नि प्रदीप्त करना, सुलगाना या सींचना। घटन-सजातीय या अन्य पदार्थों से परस्पर घर्षण करना या चालन करना। उज्ज्वालन-प्रज्ज्वालन-पंखे प्रादि से हवा देकर अग्नि को प्रज्वलित करना, उसकी अत्यन्त वद्धि करना / निर्वाण : निर्वापन-बूझाना, शान्त करना। 85. (क) दशवं. जिनदासचूणि, 154-155 (ख) अगस्त्यचूणि, पृ. 87-88 (ग) हारि. वृत्ति, पत्र 153 (घ) दशवं. (आचार्य श्री प्रात्मारामजी) पृ. 94 86. (क) प्रामुसणं नाम ईषत्-स्पर्शनं अहवा एकवारं फरिसणं प्रामुसणं / पुणो पुणो संफुसणं ।—जि. चू., पृ. 155. (ख) सकृदीषद् वा पीडनमापीडनमतोऽन्यत् प्रपीडनम् / -हा. टी., पृ. 153 (ग) अच्चत्थं पीलणं पवीलणं / -जि. च., पृ. 155 / (घ) 'सकृदीषद् वा स्फोटनमास्फोटनमतोऽन्यत्प्रस्फोटनम् / ' -हा. टी., पत्र 153 (ड) 'सकृदोषद्वा तापनमातापनं, विपरीत प्रतापनम् / ' -वही, पत्र 153 (च) दश वै. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 95 87. (क) जिनदासचूणि, पृ. 156, (ख) अगस्त्यचूणि, पृ. 89; (ग) हारि. वृत्ति, पत्र 154 (घ) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.) प्र. 99 88. (क) उजनमुत्सेचनम् / (ख) 'घट्टन-सजातीयादिना चालनम् / —हारि. वृत्ति, पत्र 154 (ग) घट्टणं परोप्परं उम्मुगाणि घट्टयति, वा अखणेण तारिसेण दव्वजाएण घट्टयति / ' जि. चू, पृ. 156 (घ) 'उज्जलणं वीयणमाईहिं जालाकरणं / ' वही, पृ. 156 (ङ) उज्ज्वालनं-व्यजनादिभिवयापादनम् / ' -हारि, वृत्ति, पत्र 154 (च) " विझवणं निवावणं / ' --अगस्त्यचणि, पृ. 89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org