________________ 118] [दशवकालिकसूत्र [53] संयत, विरत, प्रतिहत और प्रत्याख्यातपापकर्मा, वह भिक्षु या भिक्षुणी; दिन में अथवा रात में, अकेले (एकान्त) में हो या परिषद् (समूह) में हो, सोया हो या जागता हो; बीजों पर अथवा बीजों पर रखे हुए पदार्थों पर, फूटे हुए अंकुरों (स्फुटित बीजों) पर अथवा अंकुरों पर रखे हुए पदार्थों पर, पत्रसंयुक्त अंकुरित वनस्पतियों पर अथवा पत्रयुक्त अंकुरित वनस्पति पर रखे हुए पदार्थों पर, हरित वनस्पतियों पर या हरित वनस्पति पर रखे हुए पदार्थों पर; छिन्न (सचित्त) वनस्पतियों पर, अथवा छिन्न-वनस्पति पर रखे हुए पदार्थों पर, सचित्त कोल (अण्डों एवं घुन) के संसर्ग से युक्त काष्ठ आदि पर, न चले, न खड़ा रहे, न बैठे और न करवट बदले (या सोए); दूसरों को न चलाए, न खड़ा करे, न बिठाए और न करवट बदलाए (या सुलाए), न उन चलने वाले, खड़े होने वाले, बैठने वाले अथवा करवट बदलने (या सोने) वाले अन्य किसी का भी अनुमोदन करे। (भते ! मैं इस प्रकार वनस्पतिकाय की विराधना से विरत होने की प्रतिज्ञा) यावज्जीवन के लिए तीन करण-तीन योग से (करता हूँ।) (अर्थात्-) मन से, वचन से और काया से वनस्पतिकाय की विराधना) नहीं करूंगा; न (दूसरों से कराऊंगा और न ही वनस्पतिकाय की विराधना क वाले अन्य किसी का भी अनुमोदन करूगा / भंते ! मैं उस (अतीत में हुई वनस्पतिकाय को विराधना) से निवृत्त होता हूँ, उसको निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ, और उस पात्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ // 22 // [54] जो संयत है, विरत है, जिसने पाप-कर्मों का निरोध और प्रत्याख्यान कर दिया है, वह भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में, अकेले (एकान्त) में हो या परिषद् में हो, सोते या जागते; कोट (कीड़े) को, पतंगे को, कुंथु को अथवा पिपीलिका (चींटी) को हाथ पर, पैर पर, भुजा (बाँह) पर, उरु (साथल या जंघा) पर, उदर (पेट) पर, सिर पर, वस्त्र पर, पात्र पर, रजोहरण पर, अथवा गुच्छक (पात्रपोंछने के वस्त्र) पर, उंडग (प्रस्रवणपात्र-भाजन या स्थण्डिल) पर या दण्डक (डंडे या लाठी) पर, अथवा पीठ (पीढे या चौकी) पर, या फलक (पट्टे या तख्त) पर, अथवा शय्या पर, या संस्तारक (बिछौने-संथारिये) पर, अथवा इसी प्रकार के अन्य किसी उपकरण पर चढ़ जाने के बाद यतना-पूर्वक (सावधानी से धीमे-धीमे) देख-देख (प्रतिलेखन) कर, (तथा) पोंछ-पोंछ (प्रमार्जन) कर एकान्त स्थान में ले जाकर रख दे (या एकान्त स्थान में पहुँचा दे) उनको एकत्रित करके घात (पोडा या कष्ट) न पहुँचाए // 23 // विवेचन-षड्जीवनिकाय की विराधना की विरति का निर्देश और प्रतिज्ञा–प्रस्तुत 6 सूत्रों (46 से 54 तक) में पृथ्वीकाय से लेकर सकाय तक के जीवों के मुख्य-मुख्य प्रकारों, तथा विभिन्न प्रकार एवं साधनों से उनकी विराधना होने की संभावना तथा त्रिकरण-त्रियोग से यावज्जीवन के लिए उनकी विराधना के त्याग का गुरु द्वारा निर्देश किया गया है। इस निर्देश से सहमत शिष्य द्वारा प्रत्येक जीवनिकाय की विराधना से विरत होने की प्रतिज्ञा का निरूपण है। दूसरे शब्दों में कहें तो चारित्रधर्म का अंगीकार (महावत ग्रहण) करने के बाद षट्कायिक जीवों की रक्षा की विधि जान कर प्रतिज्ञाबद्ध होने का निरूपण है। व्रतारोपण के बाद साधु-साध्वी का व्यवहार षड्जीवनिकाय के प्रति कैसा रहना चाहिए? इसका सांगोपांग वर्णन इनमें है / 75 75. (क) दशवं. (मुनि नथमलजी), पृ. 147 (ख) दशव. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 265 (ग) दश. (आ. आत्मा.), पृ. 180 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org