________________ 106] [वशवकालिकसूत्र हैं-प्रति+आ+ ख्यान / प्रति शब्द (उपसर्ग) प्रतिषेध-निषेध अर्थ में, प्रा-अभिमुख अर्थ में, और 'ख्या' धातु कथन अर्थ में है। इन तीनों शब्दों का मिलकर प्रत्याख्यान का अर्थ हुआ--प्रतिषेध (प्रतीप)-अभिमुख कथन करना, प्रत्येक महाव्रत के पाठ में जब 'प्रत्याख्यामि' शब्द आता है तो उसका अर्थ हो जाता है-प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे—मैं अहिंसामहाव्रत के प्रतीप (हिंसा) प्राणातिपात के प्रतिषेध के अभिमुख कथन करता हूँ। अर्थात्-मैं प्राणातिपात न करने के लिए वचनबद्ध या प्रतिज्ञाबद्ध हो रहा हूँ। अथवा 'पच्चक्खामि' शब्द का संस्कृतरूप 'प्रत्याचक्षे' होता है—तब इसका स्पष्टार्थ होता है-"मैं संवृतात्मा सम्प्रति (इस समय) भविष्य में हिंसादि पाप के प्रतिषेध के लिए आदरपूर्वक (श्रद्धा-भक्तिपूर्वक) अभिधान (कथन) करता हूँ।" निष्कर्ष यह है कि प्रत्याख्यान महाव्रतों की प्रतिज्ञा का प्राण है, जिसके द्वारा संवृतात्मा साधक गुरु के समक्ष वर्तमान में उपस्थित होकर भविष्य में किसी प्रकार का पाप न करने के लिए प्रत्याख्यान करता है, वचनबद्ध होता है / यहीं से उसके महाव्रतारोपण का श्रीगणेश होता है। उसी प्रत्याख्यान (वचनबद्धता) को साधु या साध्वी द्वारा गुरु या गुरुणी के समक्ष 'पडिक्कमामि, निदामि, गरहामि, अप्पाणं वोसिरामि' के रूप में विस्तृतरूप से दोहराया जाता है / इनकी व्याख्या पहले की जा चुकी है। भंते : तीनरूप एवं उद्देश्य-वत्तिकार के अनुसार इस शब्द के तीन रूप होते हैं--भदन्त, भवान्त और भयान्त / भदन्त का अर्थ है जिसके अन्तस् (हृदय) में शिष्य का एकमात्र कल्याण निहित है। भवान्त का अर्थ भव--संसार का अन्त कराने वाला तथा भयान्त का भावार्थ है-जन्ममरणादि दुःखों के भय का अन्त कराने वाला / “भंते' शब्द शास्त्रों में यत्र तत्र गुरु या भगवान् को आमंत्रित (सम्बोधित) करने के लिए प्रयुक्त होता है। महाव्रतस्वीकार गुरु की साक्षी से ही उचित होता है, इसलिए शिष्य गुरु को सम्बोधित करके प्रतिज्ञाबद्ध होने का निवेदन करता है / चूर्णिकार का मत है कि गणधरों ने भगवान् से अर्थ (प्रतिज्ञावस्तु)५५ सुनकर व्रत अंगीकार करते समय 'तस्स भंते०' इत्यादि उद्गार प्रकट किये / तभी से लेकर आज भी व्रतग्रहण करते समय शिष्य द्वारा गुरु को आमंत्रण करने के लिए 'भंते' शब्द का प्रयोग होता आ रहा है। अहिसामहावत को प्राथमिकता देने के कारण प्रश्न होता है--अहिंसा महावत को ही प्राथमिकता क्यों दी गई है ? अन्य व्रतों (महाव्रतों) को क्यों नहीं ? यहाँ अहिंसा महाव्रत को प्राथमिकता देने के पांच कारण प्रस्तुत किये जाते हैं-(१) 'पढमे भंते' महत्वए.' पाठ में 'प्रथम' शब्द सापेक्ष है, मृषावाद विरमण आदि की अपेक्षा से इसे प्रथम कहा गया है / (2) सूत्रक्रम के 54. (क) प्रत्याख्यामीति-प्रतिशब्दः प्रतिषेधे, प्राङाभिमुख्ये, ख्या-प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापन (प्राणाति पातस्य) करोमि प्रत्याख्यामीति; अथवा प्रत्याचक्षे-संवृतात्मा साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्य पादरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः। हारि. वृत्ति, पत्र 144-145 (ख) 'संपाइकाले संवरियप्पणो अणागते प्रकरणनिमित्त पच्चक्खाणं / ' -जिन. चूणि पृ. 146 55. (क) भदन्तेति गुरोरामंत्रणम् भदन्त भवान्त भयान्त इति साधारणा व तिः / एतच्च गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वी ति ज्ञापनार्थम् / -हारि. वृत्ति, पत्र 144 (ख) 'भंते ! इति भगवतो आमंत्रण / ' -प्र. च., पृ. 78 (ग) गणहरा भगवतो सकासे अत्थं सोऊण वतपडिवत्तीए एवमाहु-तस्स भंते / तहा जे वि इमम्मि काले ते वि बताई पडिवज्जमाणा एवं भणंति–तस्स भंते.। -अ. चू., पृ. 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org