________________ तृतीय अध्ययन : क्षल्लिकाचार-कथा] आसंदी : विशेष अर्थ-- आसंदी एक प्रकार का बैठने का प्रासन, अथवा बैठने योग्य मांची, खटिया या पीढी, बेंत की कुर्सी को भी आसंदी कहते हैं / आसंदी पर बैठना इसलिए वर्जित है कि इस पर बैठने से प्रतिलेखनादि होना कठिन है / असंयम होने की सम्भावना है। पर्यक-जो सोने के काम में आए उसे पर्यक कहते हैं / अासन्दी, पलंग, खाट, मंच, आशालक, निषद्या आदि का प्रतिलेखन होना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि इनमें गम्भीर छिद्र होते हैं। इनमें प्राणियों का प्रतिलेखन करना सम्भव नहीं होता है / अत: सर्वज्ञों के वचन को मानने वाला न इन पर बैठे, न ही इन पर सोए / 26 ____ गृहान्तरनिषद्या-चूणि और टीका में इसका अर्थ किया है-घर में अथवा दो घरों के अन्तर (मध्य) में बैठना / उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग आदि में गृहान्तर का अर्थ किया है-परगृह (स्वगृहउपाश्रय या स्थानक से भिन्न परगह-यानी गृहस्थ के घर) दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन में कहा गया है.---'गोचराग्र में प्रविष्ट मुनि कहीं न बैठे। यहाँ 'कहीं' का अर्थ किया है-~-'किसी घर, देवालय, सभा, प्याऊ आदि में।' बृहत्कल्पभाष्य में गृहान्तर के दो प्रकार बताए हैं-सद्भाव गृहान्तर (दो घरों का मध्य) और असद्भावग्रहान्तर (एक ही घर का मध्य)। निष्कर्ष यह है कि गोचरी करते समय किसी गृहस्थ के घर में या सभा प्रपा आदि परगृह में या दो घरों के मध्य में (वृद्ध, रुग्ण, या तपस्वी के अतिरिक्त) मुनि का बैठना अनाचार है। अनाचार बताने का कारण यह है कि इससे 'चर्य पर विपत्ति आती है, प्राणियों का वध होता है, दीन भिक्षार्थियों को बाधा पहँचती है, गहस्थों को क्रोध उत्पन्न होता है और कुशील की वृद्धि होती है / गान-समुद्वर्तन- इसका अर्थ प्रसिद्ध है। दशवकालिक में ही छठे अध्ययन में कहा गया है-- "संयमी साधु चूर्ण, कल्क, लोध्र प्रादि सुगन्धित पदार्थों का अपने शरीर के उबटन (पीठी आदि) के 29. (क) 'पासन्दीत्यासनविशेषः / ' सूत्र कृ. टीका 1 / 9 / 21 प. 182 (ख) प्रासन्दिकामुपवेशनयोग्यां मंचिकाम् / सू. --1 / 4 / 2 / 15 टीका पत्र 182 (ग) “स्या त्रासनमासन्दी।" अभिधानचिन्तामणि 3 / 348 (घ) पर्यकशयनविशेषः / ---सू. 1 / 9 / 21 टीका (ङ) दशवे. 6154-56 (च) पासंदीपलियं के"....."तं विज्जं परिजाणिया। —सू. 149021 30. (क) गृहमेव ग्रहान्तरम् (गृहस्यान्तमध्ये), गृहयोर्वा मध्ये (अपान्तराल) तत्र उपवेशनं / (निषद्यां वा ग्रासनं वा) संयमविराधनाभयात् परिहरेत् / -हारि, वृत्ति, पृ. 117, सू. 19 / 21, टीका प. 128 (ख) गोयरग्गगएण भिक्खुणा णो णिसियध्वं कत्थइ-घरे वा देवकुले वा सभाए वा पवाए वा एवमादि / -जि. चू. पृ. 195 (ग) साधुभिक्षादिनिमित्त ग्रामादौ प्रविष्ट: सन् परो-गृहस्थस्तस्य गृह-परगृहं, तत्र न निषीदेत् नोपविशेत् / -सू. 1 / 9 / 29 टीका पत्र 184 (घ) मध्यं (गृहान्तरं) द्विधा-सद्भावमध्यमसद्भावमध्यम् / सद्भावमध्यं नाम-यत्र गृहपतिहस्य पान गम्यते आगम्यते वा छिण्डिकया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org