________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [103 भंते ! मैं उस (अतीत के अदत्तादान) से निवृत्त होता हूँ। (आत्मसाक्षी से उसकी) निन्दा करता हूँ; (गुरुसाक्षी से) गर्दा करता हूँ, और (अदत्तादान से युक्त) अात्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। भंते ! मैं तृतीय महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित हुअा हूँ, (जिसमें) सर्व-अदत्तादान से विरत होना होता है / / 13 / / [45] इसके (अदत्तादान-विरमण के) पश्चात् चतुर्थ महाव्रत में मैथुन से निवृत्त होना होता है / मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे कि देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी, अथवा तिर्यञ्च-सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन न करना, दूसरों से मैथुन सेवन न कराना और अन्य मैथुनसेवन करने वालों का का अनमोदन न करना: (मैं इस प्रकार की प्रतिज्ञा यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से (करता हूँ।) (अर्थात् ) मैं मन से, वचन से, काया से, (स्वयं मैथुन-सेवन) न करूगा, (दूसरों से मैथुन सेवन) नहीं कराऊंगा और न ही (मैथुन-सेवन करने वाले अन्य किसी का) अनुमोदन करूंगा। भंते ! मैं इससे (अतीत के मैथुन-सेवन से) निवृत्त होता हूँ। (आत्मसाक्षी से उसकी) निन्दा करता हूँ, (गुरुसाक्षी से) गर्दा करता हूँ और (मैथुनसेवनयुक्त सावद्य) प्रात्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। भंते ! मैं चतुर्थ महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित (उद्यत) हुअा हूँ, जिसमें सब प्रकार के मैथुन-सेवन से विरत होना होता है / / 14 / / [46] भंते ! इसके (चतुर्थ महाव्रत के) पश्चात् पंचम महाव्रत में परिग्रह से विरत होना होता है। "भंते ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे कि-गाँव में, नगर में या अरण्य में (कहीं भी), अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त-(किसी भी) परिग्रह का परिग्रहण स्वयं न करे, दूसरों से परिग्रह का परिग्रहण नहीं कराए, और न ही परिग्रहण करने वाले अन्य किन्हीं का अनुमोदन करे; (इस प्रकार की प्रतिज्ञा मैं) यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से (करता हूँ।) (अर्थात्-) मैं मन से, वचन से, काया से (परिग्रह-ग्रहण) नहीं करूंगा, न (दूसरों से परिग्रह-ग्रहण) कराऊँगा, और न (परिग्रह-ग्रहण) करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन करूंगा।" भंते ! मैं उससे (अतीत के परिग्रह से) निवृत्त होता है, उसकी (प्रात्मसाक्षी से) निन्दा करता हूँ, (गुरुसाक्षी से) गर्दा करता हूँ और (परिग्रह-युक्त) प्रात्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। ___ भंते ! मैं पंचम-महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित (उद्यत) हूँ, (जिसमें) सब प्रकार के परिग्रह से विरत होना होता है / / 15 / / [47] भंते ! इसके (पंचम महाव्रत के) अनन्तर छठे व्रत में रात्रिभोजन से निवृत्त होना होता है। भंते ! मैं सब प्रकार के रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे कि--प्रशन, पान, खाद्य और स्वाद्य (किसी भी वस्तु) का रात्रि में स्वयं उपभोग न करे, दुसरों को रात्रि में उपभोग न कराए और न रात्रि में उपभोग करने वाले अन्य किन्हीं का अनुमोदन करे, (इस प्रकार की प्रतिज्ञा मैं) यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से (करता हूँ।) (अर्थात्--) मैं मन से, वचन से, काया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org