________________ [दशवकालिकसूत्र लिए कदापि सेवन नहीं करते, क्योंकि शरीरविभूषा सावद्यबहुल है। इससे गाढ़ कर्मबन्धन होता है।' गिहिणो वेयावडियं : दो रूप (1) गृहस्थ-वैयापृत्य-(१) गहस्थ का व्यापार करना, (2) उनके उपकार के लिए उनके कर्म (कृषि व्यापार आदि) को स्वयं करना, (3) असंयम का अनुमोदन करने वाला गृहस्थ का प्रीतिजनक उपकार करना, (4) गृहस्थों के साथ अन्न-पानादि का संविभाग करना, (5) गृहस्थों का आदर करने में प्रवृत्त होना, (2) गृहस्थ-वैयावृत्य-(६) गृहस्थ को शारीरिक सेवा-शुश्रूषा करना, (7) अथवा गृहस्थ को दूसरे के यहाँ से पाहार-पानी, दवा प्रादि लाकर देना, (8) या गृहस्थ से शारीरिक सेबा लेना 132 आजीववत्तिता : स्वरूप, प्रकार एवं व्याख्या-पाजीव शब्द का अर्थ है--आजीविका के साधन या उपाय और वृत्तिता का अर्थ है-उनके आधार पर वृत्ति (पाहारादि भिक्षा) प्राप्त करना प्राजीववृत्तिता है। स्थानांग तथा दशवकालिक चूणि आदि के अनुसार ग्राजीव के 5 और व्यवहार भाष्य के अनुसार 7 प्रकार हैं। यथा-जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प, तथा तप और श्रुत / इन 7 प्रकार के आजीवों में से किसी भी आजीव का आश्रय लेकर आजीविका (भिक्षा या आहारादि) प्राप्त करना प्राजोववृत्तिता नामक अनाचार है। जाति आदि का कथन दो प्रकार से होता हैस्पष्ट शब्दों में, अथवा प्रकारान्तर से प्रकट करके। दोनों ही प्रकार से जाति आदि का कथन करना आजीववृत्तिता नामक अनाचरित है। यथा-मैं अमुक जाति (ब्राह्मण आदि जाति या मातृपक्ष) का हूँ, अथवा मैं अमुक कुल (उग्र, भोग आदि कुल या पितृपक्ष) का रहा हूँ, या गणादि गण या अमुक गच्छ, संघ या संघाटक) का हूँ, या मैं अमुक कर्म (कृषि, वाणिज्य आदि) अथवा अमुक शिल्प (बुनाई, सिलाई, आभूषण घड़ाई, लुहारी प्रादि) में बहुत कुशल था, अथवा मैं बहुत बड़ा तपस्वी या बहुश्रुत (ज्ञानी) हूँ, अथवा मैं अमुक लिंग-वेष वाला—साधु हूँ।" इस प्रकार जाति प्रादि के सहारे आजीविका या आहारादि भिक्षा प्राप्त करना प्राजीववृत्तिता है / 33 सूत्रकृतांग में तो यहाँ तक बताया 31. (क) दशवै. 6.64-67 / (ख) गातं सरीरं तस्स उव्वट्टणं अभंगणुव्वलणाईणि। -प्र. चू. पृ. 61 32. (क) गृहस्थस्य वैयावृत्त्यम्। हरि. वृत्ति प. 117 / / (ख) "गिहीणं वेयावडियं जं तेसि उपकारे वट्टति / " ---अगस्त्य. चूणि पृ. 61 (ग) ""जं गिहीण अण्णपाणादीहिं विसूरंताण विसंविभागकरणं एवं वेयावडियं भण्णइ,""वेयावडियं नाम तथाऽदरकरणं, तेसि वा पीतिजणणं / ' -जिनदास चुणि, पृ. 114, 373 (घ) ...."गृहस्थं प्रति अन्नादिसम्पादनम् ;' 'गृहिणो-गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गहिभावोपकाराय तत्कर्मसु प्रात्मनो व्यावृत्तभावं न कुर्यात् / ' -हारि. वृत्ति पत्र 117, 281 (छ) 'व्यावृत्त:-परिचारकः, तस्य कर्म वयावृत्त्यं-परिचर्या / ' 33. (क) 'पाजीवं-प्राजीविकाम्-प्रात्मवर्तनोपायाम् / —सू. कृ. 1 / 13 / 12 टीका, पत्र 237 (ख) 'जाति-कूल-गण-कम्मे सिप्पे पाजीवणा उ पंचविहा।' -अ. च. प. 61 (ग) जाति कुले गणे वा, कम्मे सिप्पे तवे सुए चेव / सत्तविहं प्राजीवं, उपजीवइ जो कुसीलो उ॥ --व्यवहार, भाष्य प. 253 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org