________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] 27 चित्तमंतं, चित्तमत्तं : तीन रूप, तीन अर्थ-(१) चित्तवत्-चित्त का अर्थ है-जीव या चैतन्य / जिसमें चेतना या चैतन्य हो, उसे चित्तवत् कहते हैं / 21 तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावर जीवनिकायों में चेतना होती है; वे चैतन्यवान् सजीव कहे गए हैं / (2) चित्तमात्रंमात्र शब्द के दो अर्थ होते हैं-स्तोक (अल्प) और परिमाण / प्रस्तुत प्रसंग में मात्र शब्द स्तोकवाचक है / तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकाय आदि पांच जीवनिकायों (स्थावरों) में चैतन्य स्तोक—अल्प विकसित होता है। उनकी चेतना अव्यक्त होती है, त्रस जीववत् उच्छवास, निःश्वास, निमेष गतिप्रगति आदि चेतना के व्यक्त चिह्न इनमें नहीं होते हैं। अथवा (3) चित्तमत्तं - मत्त का अर्थमूच्छित भी है। जिस प्रकार मद्यपान, सर्पदंश ग्रादि चित्तविघात के कारणों से अभिभूत मनुष्य का चित्त मत्त-- मूच्छित हो जाता है, वैसे ही ज्ञानावरणीय एवं मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से पृथ्वीकाय ग्रादि एकेन्द्रिय जीवों का चित्त (चैतन्य) सदैव मच्छित-सा रहता है। 22 अर्थात-एकेन्द्रियों में चैतन्य सबसे जघन्य होता है। एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च व सम्मूच्छिम मनुष्य, गर्भजतिर्यञ्च, गर्भजमनुष्य, वाणव्यन्तर देव, भवनवासी देव, ज्योतिष्क देव, और वैमानिक देव (कल्पोपपन्न, कल्पातीत, अवेयक और अनुत्तरौपपातिक देव) के चैतन्य का विकास उत्तरोत्तर अधिक होता है / 23 ___ अक्खाया : तात्पर्य यहाँ 'अक्खाया' शब्द प्रयोग करने का तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकाय आदि चैतन्यवान् (सजीव) हैं, यह मैं (सुधर्मास्वामी) नहीं कह रहा हूँ, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् ने कहा है / 24 अणेगजीवा पुढोसत्ता : व्याख्या--अनेकजीवा का अर्थ है—पृथ्वीकायादि प्रत्येक काय के अनेक-अनेक जीव हैं, एक जीव नहीं है। जैसे वैदिक मतानुसार वेदों के पृथिवी देवता, आपो 21. (क) प्रचलित मूलपाठ 'चित्तमंत' है, किन्तु हरिभद्रसूरि, जिनदास महत्तर प्रादि ने पाठान्तर माना है 'पाठान्तरं वा पुढवी चित्तमत्तमक्खाया' इत्यादि। —हारि. वृत्ति, पत्र 138 (ख) चित्त जीवलक्षणं तदस्यास्तीति चित्तवत चित्तवती वा, सजीवेत्यर्थः। -हारि. वृत्ति, पत्र 138 22. (क) "मत्तासदो दोसु अत्थेसु वट्टइ, तं.-थोवे वा परिमाणे वा।" -जिन. चूणि, पृ. 135 (ख) 'अत्र मात्र शब्द: स्तोकवाची, यथा सर्षपत्रिभागमात्रमिति / ततश्च चित्तमात्रा-स्तोकचित्ता इत्यर्थः / -हारि. वृत्ति, पृ. 138 (ग) "चित्तमात्रमेव तेषां पृथ्वीकायिनां जीवितलक्षणं, न पुनरुच्छ्वासादीनि विद्यन्ते / " ---जिनदास. चूणि, पृ. 136 (घ) अहवा चित्त मत्त (मुच्छियं) एतेसि ते चित्तमत्ता / जहा पुरिसस्स मज्जपाण-विसोवयोग-सप्पावराहहिपुरभक्खण-मुच्छादीहिं चेतोविघातकारणेहिं जुगपदभिभूतस्स चित्त मत्त, एवं पूढविक्कातियाणं / -अगस्त्य चूर्णि, पृ. 74 23. (क) प्रबलमोहोदयात् सर्वजघन्यं चैतन्यमेकेन्द्रियाणाम् / -हारि. बृत्ति, पत्र 138 (ख) सव्व जहण्णं चित्त एगिदियाणं ततो विसुद्धतरं बेइंदिया जाव सम्वुक्कसं अणुत्तरोववातियाणं देवाणं / -अगस्त्य चूर्णि, पृ. 74 ! 24. दशवै. प्राचार म. म. टीका भा. 1, पृ. 205 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org