________________ 82] [दशवकालिकसूत्र तत्र दृष्टिगोचर होती है / यहाँ शंका उपस्थित होती है कि शिष्य को सम्बोधित करने के लिए यही शब्द क्यों चुना गया? जिनदास महत्तर इसका समाधान इस प्रकार करते हैं देश, कुल, शील आदि से सम्बन्धित समस्त गुणों में विशिष्टतम गुण दीर्घायुष्कता है। जो शिष्य दीर्घायु होता है, वह पहले स्वयं ज्ञान प्राप्त करके बाद में अन्य भव्यजनों को ज्ञान दे सकता है, इस, प्रकार शासनपरम्परा अविच्छिन्न चलती है / अतः 'आयुष्मान्' शब्द का विशिष्ट अर्थ है-उत्तम देश, कुल, शील आदि समस्त गुणों से समन्वित प्रधान दीर्घायु गुण वाला। प्रधानगुण (दीर्घायुष्कत्व) निष्पन्न आमंत्रण-वचन का एक प्राशय यह भी है कि गुणी शिष्य को आगमरहस्य देना चाहिए, अगुणी को नहीं / कहा भी है--"जिस प्रकार कच्चे घड़े में भरा हुआ पानी उस घड़े को ही विनष्ट कर देता है, वैसे ही गुणरहित शिष्य (पात्र) में उड़ेला हुआ सिद्धान्त रहस्य रूपी जल, उस अल्पाधार को ही विनष्ट कर देता है।"3 आयुष्मान् भगवान्' कहने का प्राशय-जिनदास महत्तर ने इसका आशय स्पष्ट किया है कि सुधर्मास्वामी कहते हैं--मैंने आयुसहित भगवान् से अर्थात्-तीर्थकर भगवान् के (जीवित रहते) उनसे सुना है। कासवेणं समजेणं भगवया महावीरेणं : व्याख्या-काश्यपः दो- अर्थ (1) भगवान महावीर का गोत्र काश्यप होने के कारण वे काश्यप के अपत्य (संतान) काश्यप कहलाए, (2) काश्य कहते हैंइक्षुरस को, उसका पान करने वाले को 'काश्यप' कहते हैं। भगवान् ऋषभदेव इक्षुरस का पान करने के कारण काश्यप कहलाए / उनके गोत्र में उत्पन्न होने के कारण भगवान् महावीर भी काश्यप कलाए / अथवा भगवान् ऋषभ के धर्मवंशज या विद्यावंशज होने के कारण भी चौवीसवें तीर्थकर भ. महावीर 'काश्यप' कहलाए।' समण-तीन अर्थ--सहज समत्वादिगुणसम्पन्न होने से वे समन (समण) कहलाए, तपस्या में दीर्घकाल तक पुरुषार्थ (श्रम) करने के कारण 'श्रमण' (दीर्धतपस्वी) कहलाए, तथा विषय-कषायों का शमन करने के कारण 'शमन' कहलाए।" 3. (क) अनेन गुणाश्च देशकुलशीलादिका अन्वाख्याता भवन्ति, दीर्घायुष्कत्वं च सर्वेषां गुणानां प्रति विशिष्टतम, कहं ? जम्हा दिग्घायू सीसो तं नाणं अन्नेसि पि भवियाणं दाहिति / तमो अवोच्छित्ती सासणस्स कया भविस्लइ, तम्हा पाउसंतम्गहणं कयंति। —जिन. चूणि, प. 131 / / (ख) प्रधानगुणनिष्पन्नेनामंत्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयं, नागुणवते, इत्याह / उक्तं च 'आमे घडे निहत्त०' -हारि. वृत्ति, पृ. 137 4. (क) काश्यप गोत्त कुलं यस्य सोऽयं काश्यपगोत्तो। -जिन. चूणि, पृ. 132 (ख) कासं-उच्छु, तस्य विकारो-काश्यः रस:, सो जस्स पाणं सो कासवो उसभसामी, तस्स जे गोत्तजाता ते कासवा, तेण वक्षमाणसामी कासवो। -अगस्त्य, चणि, प. 73 5. (क) सहसं मुहए समणे -प्राचा०, चूणि, 15-16 (ख) श्राम्पति तपस्यतीति श्रमण: ---दशवै. हारि. वत्ति, अ. 1 (ग) शमयति विषयकषायादीन इति शमनः / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org