________________ 68] [दशवकालिकसूत्र विरेचन के तीन प्रयोग : वमन, वस्तिकर्म और विरेचन-वमन-ऊर्ध्व विरेक है, वस्तिकर्म मध्यविरेक है और विरेचन अधोविरेक / वमन—मदनफल आदि के प्रयोग से आहार को बाहर निकालना, पौष्टिक औषधिसेवन के पूर्व वमन करना आदि / वस्तिकर्म-वस्ति—चर्मनली, (वर्तमान में रबर-नली) के द्वारा कटिवात, अर्श रोग आदि को मिटाने के लिए अपानद्वार से तेल ग्रादि चढ़ाना / विरेचन-जुलाब लेकर मल निकालना। ये तीनों ग्रारोग्यप्रतिकर्म हैं। अत: प्रायश्चित्तसूत्र के अनुसार अरोगप्रतिकर्म की दृष्टि से तथा रूप, बल प्रादि को बनाए रखने की दृष्टि से वमनादि करना अनाचीर्ण एवं निषिद्ध कहा गया है / 42 दंतवणे : दो रूप : तीन अर्थ-(१) दन्तवन– दांतों को वन यानी वनस्पति या वृक्षजन्य काष्ठ से साफ करना, (2) मंजन आदि से दांतों को साफ (पावन) करना / (3) दन्तवर्ण-दांतों को मिस्सी आदि लगा कर रंगना, दाँतों को विभूषित करना / 3 गात्राभ्यंग : विश्लेषण—शरीर का तेल, घृत, वसा, चर्बी अथवा नवनीत से मालिश या मर्दन करना, भिक्षु के लिए प्रायश्चित्तयोग्य अनाचरणीय कर्म है, ऐसा निशीथसूत्र का विधान है / 44 विभूसणे : विभूषा-शरीर को वस्त्र, आभूषण आदि से मण्डित करना, केश-प्रसाधन करना, दाढ़ी, मूंछ, नख प्रादि को शृगार की दृष्टि से काटना, शरीर की साज-सज्जा करना आदि विभूषा है। विभूषा ब्रह्मचर्य के लिए घातक है। इसी शास्त्र में विभूषा को 18 वा वय॑स्थान तथा आत्मगवेषी पुरुष के लिए तालपुट विष कहा है / उत्तराध्ययन में नौवीं ब्रह्मचर्यगुप्ति के सन्दर्भ में कहा गया है कि विभूषा करने वाला साधु स्त्रीजन द्वारा प्रार्थनीय हो जाता है। स्त्रियों द्वारा अभिलषित होने से उसके ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा उत्पन्न 42. (क) बमनं मदनफलादिना / —हा. टी., पत्र 118 (ख) वमनं ऊर्वविरेक: / -सू. कृ. 1-9-12 टीका पत्र 180 (ग) वत्थी-णिरोहादिदाणत्थं चम्ममयो णालियाउत्तो कीरति, तेण कम्म-ग्रपाणाणं सिहादिदाणं वत्थिकम्म / -प्र. चू., पृ. 62 (घ) कडिवाय-परिस-विणासणत्थं च अपाणहारेण वत्थिणा तेल्लादिप्पदाणं वत्थिकम्म / -निशीथ भाप्य, गा. 4330, चणि पृ. 392 (ङ) वस्तिकर्म-पुटकेन अधिष्ठाने स्नेहदानम् / —हारि. वृत्ति, पत्र 118 (च) विरेयणं कसायादीहि सोधणं। -प्र. चू., पृ. 62 (छ) विरेचनं–निरूहात्मकमधोविरेको / . --सू. 1-9-12, टी. 180 (ज) 'एतानि प्रारोग्गपडिकम्माणि रूव-बलत्थमणातिण्णं / ' -अगस्त्य चणि, प्र. 62 (झ) प्रायश्चित्तयोग्य--वण्ण-सर-रूव-मेहा, वंग-वलोपलित-णासा वा। दीहाउ-तट्टता वा, थूल-किसट्टा व तं कुज्जा / / --निशीथ भाप्य, गा. 4631 43. (क) दन्ताः पूयन्ते -पवित्रीक्रियन्ते येन काष्ठेन तन्तपावनम्। -प्रवचन. 4-210, टीका प. 51 (ख) दन्तप्रधावनम् चांगुल्याविना क्षालनम् -हारि. टीका, पत्र 117 (ग) दंतमणं-दसणाणं (विभूसा) -अगस्त्य-चूणि, पृ. 66 44. निशीथ. 3-24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org