________________ [दशवकालिकसूत्र आउरस्सरणाणि : दो रूप : पांच अर्थ-(१) प्रातुरस्मरणानि--(१) क्षुधादि से पीड़ित होने पर पूर्वभुक्त वस्तुओं का स्मरण करना, (2) पूर्वभुक्त कामक्रीड़ा का स्मरण करना, (3) रोगातुर होने पर माता-पिता आदि का स्मरण करना, (2) आतुरशरणानि-(४) शत्रुओं द्वारा पीड़ित या भयभीत गृहस्थ को शरण (उपाश्रय में स्थान) देना, (5) रुग्ण होने पर स्वयं आतुरालय (आरोग्यशाला, हॉस्पिटल) में प्रविष्ट (भर्ती) होना। शत्रुओं से अभिभूत को शरण देना अनाचार इसलिए है कि जो साधु स्थान (आश्रय) देता है, उसे अधिकरण दोष होता है। साथ ही, उसके शत्रु के मन में प्रद्वेष उत्पन्न होता है / आरोग्यशाला में प्रविष्ट होना साधु के लिए अकल्पनीय होने से अनाचार है / 36 अनिर्वत, सचित्त और आमक में अन्तर-यों तो तीनों शब्द एकार्थक हैं, किन्तु प्रक्रिया का अन्तर है। जिस वस्तु पर शस्त्रादि का प्रयोग तो हुअा है, पर जो प्रासुक (जीवरहित) नहीं हो पाई हो, वह अनिर्वत है / जिस पर शस्त्रादि का प्रयोग ही नहीं हुआ है, अर्थात् जो वस्तु मूलतः ही सजीव हैं वह सचित्त है। प्रामक का अर्थ है--कच्चा, अपरिणत--अपरिपक्व अर्थात्-जो सर्य की धूप, वायु आदि से पके नहीं हैं, वे प्रामक (सजीव) हैं / तीनों शब्द सामान्यतः सजीवता के द्योतक हैं। ___ इक्षुखण्ड : प्रनित कब ?---जिस ईख में दो पोर मौजूद हों, वह इक्षुखण्ड या गंडेरी सचित्त ही रहता है, ऐसा चूणिद्वय और टीका का मत है / कंद, मूल, बीज : विशेषार्थ-कंद का अर्थ है शक्करकंद सूरण आदि का ऊपरी भाग यानि कन्दिल जड़, और मूल का अर्थ है- इन्हीं की सामान्य जड़ / जहाँ 'मूल-कन्द' शब्द का प्रयोग हो, वहाँ वह वृक्ष की जड़ और उसके ऊपर के भाग का द्योतक समझना चाहिए / बीज का अर्थ--गेहूँ, जौ, तिल आदि है जो उगने योग्य हों। 8 / / 36. (क) 'पातुरस्मरणानि पातुरशरणानि वा।' –हारि. टीका, पृ. 117-118 (ख) 'क्षुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्मरणाणि / ' –वही, टीका, पृ. 117 (ग) छुहादीहि परीसहेहि पाउरेणं सीतोदकादि-पुवभुत्तसरणं / --अगस्त्य. चूगि, पृ. 61 (घ) पूर्वक्रीडितस्मरणम् / ' -सू. कृ. 1 / 9 / 21 (ङ) अातुरस्य रोगपीडितस्य स्मरणं हा तात ! हा मात: ! इत्यादिरूपम् / -उत्तरा. 118 नेमि. टीका, प. 217 (च) सत्तूहि अभिभूतस्स सरणं देइ, सरणं नाम उवस्सए ठाणं ति वृत्तं भवइ / —जिन, चूणि, पृ. 114 (छ) पातुरशरणानि वा दोषातुराश्रयदानानि / —हारि. टीका प. 118 (ज) 'अहवा सरणं आरोग्गसाला, तत्थ पवेसो गिलाणस्स (मुणिस्स)।' -अगस्त्य चूरिंग, पृ. 61 (झ) 'तत्थ अधिकरणदोसा, पदोसं वा ते सत्तू जाएज्जा।' -अ. चणि, प. 61 (अ) 'तत्थ न कप्पइ गिलाणस्य पविसिउं, एतमवि तेसि प्रणाइण्णं / ' –जिन. चूणि, पृ. 114 37. (क) अणिन्त्रुडं''पुण जीव-अविप्पजद, 'प्रामगं अपरिणत, सच्चित्तं / ' –अगस्त्य. चूणि, पृ. 62 (ख) 'उच्छुखंडमवि दोसु पोरेसु बट्टभाणेसु अणिबुडं भवइ / ' ---जिन. चूणि 38, (क) 'कन्दो वज्रकन्दादिः, मूलं च सट्टामूलादि / ' हारि. टीका, पत्र 118 (ख) 'बीजा गोधूमतिलादिणो।' –जिन. चुणि, पृ. 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org