________________ [वशवकालिकसूत्र * उसके बाद ३३वीं गाथा से ३८वीं गाथा तक जीव-अजीव प्रादि से लेकर मोक्ष तत्त्व तक के सम्यग्ज्ञान-विज्ञान का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध और महत्त्व बताया गया है। फिर ३९वीं गाथा से ४८वीं गाथा तक भोगों से निर्वेद से लेकर सिद्ध (मुक्त) होने तक की धर्मसाधना का निरूपण है। * अन्तिम गाथाओं में धर्माराधना के फल का दिग्दर्शन कराया गया है।' नवदीक्षित साधु या साध्वी के लिए जीव से मोक्ष तत्त्व तक हेय-ज्ञेय-उपादेय तत्त्वों की सम्यक् ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र की दृष्टि से सम्यक् आराधना का निष्कर्ष इस अध्ययन में दे दिया गया है / साथ ही मोक्षमार्ग के अधिकारी साधक को इस मार्ग की आराधना करने की सांगोपांग विधि इसमें बता दी गई है / सिद्धि के प्रारोहक्रम को जानने की दृष्टि से यह अध्ययन अतीव उपयोगी है। 8. जीवाजीवाहिगमो चरित्तधम्मो तहेव जयणा य / उवएसो धम्मफलं छज्जीवणियाइ अहिगारा॥ -दश. नि. 4-216 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org