________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा] [71 'त्रिगुप्त'--मन, वचन और काया, इन तीनों की विषय-कषायों या पापों से रक्षा (गुप्ति) करना, क्रमशः मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति है। जिसकी आत्मा इन तीन गुप्तियों से रक्षित (गुप्त-निगृहीत) है, वह 'त्रिगुप्त' है / 50 'छस् संजया'-पृथ्वी काय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय में, संसार के समस्त प्राणी अन्तर्गत हैं। जो साधक इन षड्जीवनिकायों के प्रति मन-वचन-काय से सम्यक् प्रकार से यत (यतनाशील) है, संयमी है, वह संयत है / 51 पंचनिग्गहणा-इन्द्रियाँ पांच हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय ; इन पांचों इन्द्रियों का दमन करने वाले साधक पंचेन्द्रियनिग्रही' कहलाते हैं / 12 धीरा : तीन अर्थ-(१) जो बुद्धि से सुशोभित (राजित) हैं, वे धीर हैं, अर्थात्-जिनकी प्रज्ञा स्थिर है, (2) जो धैर्य गुण से युक्त हैं, और (3) जो शूरवीर, (संयम में पराक्रम करने में वीर) हैं। उज्जुदसिणो : ऋजुदर्शी : पांच अर्थ-(१) जिनदास महत्तर के अनुसार जो केवल ऋजुसंयम को देखते (ध्यान रखते) हैं, (2) जो स्वपर के प्रति ऋजुदर्शी-समदर्शी हैं; अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार--(३) ऋजुदी-रागद्वेषपक्षरहित-(समत्वदर्शी) (4) अविग्रहगति-दर्शी, अथवा (5) मोक्षमार्ग-दर्शी। तात्पर्य यह है कि जो मोक्ष के सीधे-सरल मार्गरूप संयम को ही उपादेय रूप से देखते हैं, एकमात्र संयम से प्रतिबद्ध हैं, वे ऋजुदर्शी हैं / निर्ग्रन्थों की ऋतुचर्या-ऋतएँ मुख्यतया तीन हैं-ग्रीष्म, शीत (हेमन्त) और वर्षा / श्रमण निर्ग्रन्थों की इन तीनों ऋतुओं की चर्या तपश्चरण एवं संयम से युक्त होती है / अगस्त्यचूर्णि में बताया है कि ग्रीष्म ऋतु में श्रमण को स्थान, मौन एवं वीरासनादि विविध तप करना चाहिए, विशेषतः एक पैर से खड़े होकर सूर्य के सम्मुख मुख करके खड़े-खड़े प्रातापना लेनी चाहिए। जिनदास महत्तर ने 'ऊर्वबाहु होकर उकडू आसन से आतापना लेने का अभिप्राय व्यक्त किया है। 50. (क) 'मण-वयण-कायजोगनिग्गहपरा।' –अ. च., पृ. 63 (ख) त्रिगुप्ता:-मनोवाक्कायगुप्तिभिः गुप्ताः। -हारि. वृत्ति, पत्र 118 51. (क) छसु पुढविकायादिसु त्रिकरण-एकभावेण जता-संजता। - प्र. चू., पृ. 63 (ख) षट्सु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यताः। --हारि. वृत्ति, पत्र 119 52. 'सोतादीणि पंच इंदियाणि णिगिण्हति / ' -अगस्त्य, चणि, प्र. 63 53. (क) 'धीरा बुद्धिमन्तः स्थिरा वा।' हारि. वृत्ति, पत्र 119 (ख) “धीरा णाम धीरत्ति वा सूरेत्ति वा एगट्ठा / " -जिन. चूणि, पृ. 116 54. (क) उज्ज-संजमो " तमेव एगं पासंतीति तेरण उज्जुदंसिणो / अवा उज्जुत्ति समं भण्णइ, सममप्पाणं परं च पासंतीति उज्जुदंसिणो। -जिन. चूर्णि, पृ. 116 (ख) " " उज्जू- रागदोसपक्खविहिता, अविग्गहगती वा उज्जू -- मोक्खमग्गो तं पस्संतीति उज्जुदंसिणो / " -अग. चणि, पृ. 63 / (ग) ऋजुर्दाशन:---संयमप्रतिबद्धाः / -हा. टी. पृ. 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org