________________ [दशवकालिकसूत्र भोए : व्यापक अर्थ-इन्द्रियों के वियष स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का प्रासेवन भोग कहलाता है / काम, भोग का पूर्ववर्ती है / पहले काम (विषय की कामना) होती है फिर भोग होता है। इस कारण काम और भोग दोनों शब्द एकार्थक-से बने हए हैं। भगवतीसत्र आदि प्रागमों में काम और भोग का सूक्ष्म अन्तर बताया गया है / वहाँ रूप और शब्द को 'काम' तथा स्पर्श, रस और गन्ध को 'भोग' कहा गया गया है / '7 यहाँ व्यावहारिक स्थूल दृष्टि से सभी विषयों के प्रासेवन को 'भोग' कह दिया गया है। विपिढिकुव्वई : दो रूप : अनेक अर्थ-(१) विपृष्ठीकरोति-विविध-अनेक प्रकार की शुभ भावना आदि से भोगों को पीठ पीछे करता है, उनकी ओर पीठ कर लेता है, उनसे मुंह मोड़ लेता है, या उनका परित्याग करता है / (2) (लब्धान्) अपि पृष्ठीकुर्यात् –भोग उपलब्ध होने पर भी, उनकी ओर पीठ कर लेता है।' साहोणे चयइ भोए : दो व्याख्या-(१) चणि के अनुसार स्वाधीन अर्थात्-स्वस्थ और भोगसमर्थ / उन्मत्त, रोगी और प्रोषित प्रादि पराधीन हैं। अतः अपनी परवशता के कारण वे भोगों का सेवन नहीं कर पाते, इसलिए यह उनका त्याग नहीं है। (2) हरिभद्रसूरि के मतानुसार किसी बन्धन में बद्ध होने से नहीं, वियोगी होने से नहीं, परवश होने से नहीं, किन्तु स्वाधीन होते हुए भी उपलब्ध भोगों का त्याग करता है, वह त्यागी है। इसका फलितार्थ यह है कि जिसे विविध प्रकार के भोग प्राप्त हैं, उन्हें भोगने में भी समर्थ (स्वाधीन) है, वह यदि अनेक प्रकार की शुभ भावनाओं, आदि से उनका परित्याग कर देता है, तो वह सच्चा त्यागी है / स्वाधीन भोगों को त्यागने वाले धनी और निर्धन भी-स्वाधीन भोगों को परित्याग करने वालों में वैभवशाली भरतचक्री, जम्बूकुमार आदि का उल्लेख किया गया है, ऐसी स्थिति में क्या धनिकावस्था में भोगों के परित्यागी ही त्यागी कहलाएँगे? निर्धनावस्था में घरबार आदि सब कुछ त्याग कर प्रनजित होने वाले तथा अहिंसादि पंच महाव्रतों से युक्त हो कर श्रामण्य का सम्यक् परिपालन करने वाले त्यागी नहीं हैं ? प्राचार्य ने एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सुन्दर समाधान दिया है--एक लकडहारा सधर्मा स्वामी के पास दीक्षित हया। भिक्षा के लिए जब वह ना के लिए जब वह नवदीक्षित मुनि घूमता तो लोग ताना मारते कि सुधर्मा स्वामी ने भी अच्छा दीन-हीन जंगली मनुष्य मुंडा है / नवदीक्षित ने क्षुब्ध होकर आचार्यश्री से अन्यत्र चलने के लिए कहा। प्राचार्य सुधर्मास्वामी ने 17. (क) भोगा-सद्दादयो विसया / ---जि. चू. पृ. 82, (ख) भगवती 7.7, (ग) नंदी. 27, गा.७८ 18. (क) तो भोगायो विविहेहिं संपण्णा वियटीओ उ कुवइ परिचयइत्ति वुत्तं भवइ, अहवा विपट्टि कुब्वंतित्ति दूरओ विवज्जयंती, ग्रहवा विपट्ठिति पच्छयो कुम्वइ, ण मग्गयो। -जि. चू. पु. 83 (ख) विविध-अनेकैः प्रकारैः शुभभावनादिभिः पृष्ठतः करोति-परित्यजति / -हारि. वृत्ति पृ. 92 19. (क) स च न बन्धनबद्धः न प्रोषितो वा, किन्तु स्वाधीन:-अपरायत्तः / ---हारि. वृत्ति पृ. 92 (ख) साहीको नाम कल्लसरीरो, भोगसमत्थोत्ति वृत्तं भवइ, न उम्मत्तो रोगिनो पसिनोवा / -जि. च. पृ. 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org