________________ 58] दशवकालिकसूत्र निश्चित हो, वहाँ नियाग दोष है / णियाग (नियाग) का णीयग्ग (नित्याग्र) रूपान्तर भी मिलता है। अभिहत : विशेष अर्थ-साधु के निमित्त, उसे देने के लिए गृहस्थ द्वारा अपने गाँव, घर आदि से उसके सम्मुख लाई हुई वस्तुएँ लेना / इसमें प्रारम्भादि दोषों की संभावना है।'' रात्रिभक्तः-(१) पहले दिन, दिन में लाकर दूसरे दिन, दिन में खाना, (2) दिन में लाकर रात्रि में खाना, (3) रात्रि में लाकर दिन में खाना, और (4) रात्रि में लाकर रात्रि में खाना / ये चारों ही विकल्प रात्रिभोजन दोष के अन्तर्गत होने से वर्जनीय हैं।" स्नान : दो प्रकार-(१) देशस्नान, और (2) सर्वस्नान / दोनों ही तरह के स्नान अहिंसा की दृष्टि से वजित हैं।'३ गन्ध-माल्य--गन्ध-इत्र प्रादि सुगन्धित पदार्थ और माल्य--पुष्पमाला / गन्ध और मात्य दोनों शब्दों का यहाँ पृथक् पृथक् प्रयोग हैं / , पृथ्वीकाय, वनस्पतिकाय आदि जीवों की हिंसा, विभूषा और परिग्रह आदि की दृष्टि से वजित और अनाचरणीय हैं / 4 बीजन : व्याख्या-व्यजन--पंखा, ताड़वन्त, व्यजन मयूर पंख आदि किसी से भी हवा करना, हवा लेना या प्रोदनादि को ठंडा करने के लिए हवा करना व्यजन दोष है। ऐसा करने से सचित्त वायुकायिक जीव मारे जाते हैं, संपातिम जीवों का हनन होता है।" सन्निधि : व्याख्या-सन्निधि का अर्थ है--संचय-संग्रह करना / खाद्य वस्तुएँ तथा औषधभैषज्य आदि का लेशमात्र या लेपमात्र भी संचय न करें, ऐसी शास्त्राज्ञा है / यहाँ तक कि भयंकर, दुःसाध्य रोगातंक उपस्थित होने पर भी औषधादि का संग्रह करना वर्जित है; संग्रह करने से गृद्धि या लोभवत्ति बढ़ती है / 16 10. (क) नियागं नाम निययत्ति बुत्तं भवइ, तं तु यदा प्रायरेण प्रामंतिम्रो भवइ / —जि. चू., पृ. 111 (ख) नियाग-प्रतिणियतं जं निबंधकरणं, ण तु जं अहासमावत्तीए दिणे दिणे भिक्खागणं -अ. च., पृ. 60 (ग) नियाणमित्यामंत्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं, न तु अनामंत्रितस्य हा. व., प. 116 (घ) दशवं. (आचार्य श्री आत्मारामजी) पृ. 67 11. (क) "अभिहडं-जं अभिमुहाणीतं उवस्सए आणेऊण दियणं / " --अगस्त्य. चणि, पृ. 60 (ख) "स्वग्रामादे: साधुनिमित्तमभिमुखमानीतमभ्याहृतम् / " -हारि. वृति, पत्र 116 12. अगस्त्य. चूणि, पृ. 60 13. जि. चू. पृ. 112 / 14. जिन. चूणि पृ. 112 15. जिन. चूणि. पृ. 112 16. (क) सन्निहिं च न कुब्वेजा लेवमायाए (अणुमायं पि) संजए।' उत्तरा. 6 / 15, दशवं. 8 / 24 (ख) प्रश्नव्याकरण 215 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org