Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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* अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री पाठक ऋषिजी +
॥ द्वितीय प्रामृतम् ॥ ता कहते तिरच्छगति आहितेति वदेजा ? तत्थ खलु इमातो अट्ट पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तंजहां-तत्थ एगएव माहसु-ता पुरथिमिलातो लोगंताओ पाओसृरिए आगासंसि उत्तिटुंति,सेणं इम लोग तिरियं करति २ त्ता पच्चथिमिलंसि लोगतसि सायं सरिए आगासंसि विद्धसति एग एच माहंम् ॥ १ ॥ एगपुण एव माहंसु ता पुरत्थिीमलाता लोगताओ पातो सरिए आगासातो तिटुंति, सेणं इमलोयं तिरियं करति २ त्ता पञ्चत्थिमिल्लंसि लागतास सायं सरिए आगाससि विहरति, एगे एवमासु ॥ २ ॥
अब दूसरा पाहुडा कहते हैं. अहो भगवन् ! सूर्य की तीर्छगति किस प्रकार की है ? उत्तर-अहो शिष्य! इस में अन्यतीथि की प्ररूपणा रूप अठ पडिवृत्तियों कही है. उन में से कितनेक ऐमा कहते हैं कि पूर्वदिशा के लोक के चरिमांत से प्रभात में सूर्य आकाश में नीकलता है. वह तीछे लोक में प्रकाश करके पश्चिम दिशा के लोक के अंत में संध्या समय में विनाश को प्राप्त होवे, २ कितनेक ऐमा कहते हैं कि पूर्व दिशा के लोक के चरिमांत से प्रभात में सूर्य आकाश में रहता है. वही सूर्य ताछ लोक में प्रकाश
करके पश्चिपदिशा के गेकांत में संध्या समय में आकाश में विचरे. ३ कितनेक ऐसा कहते हैं कि के पूर्व दिशा के लोक के चरिमांत में प्रभात में सूर्य आकाश में रहता है. वह तीछी लोक
प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदवसहायजी ज्वालापसादजी.
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