Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari

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Page 417
________________ सूत्र अर्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक सूरेणं राहुस्सकुच्छी भिन्नाए, एवं ता जयाणं राहु आगच्छमाणेवा गच्छमात्रा जा परियारेमात्रा चंदरसवा सूरस्सवा लेस्सं आवरित्ताणं पञ्चोसकाइ तयाणं मणुरसलोगे मणुस्सावयंति एवं खलु चंद वा सूरे वा राहुण ते । एव ता जयाणं आगच्छमाणेवा गच्छमाणेवा चंदस्सा सूरस्सलेस्सा आवरताणं मज्झेणं वितित्रयति तयाणं मणुरसलोगे मणुस्सा वयति एवं राहुणं चंदेवा सूरेवा विश्वति चरिए, एवं ता जाणं राहु आगच्छमाणेवा गच्छमानवा चंदरसवा सूरस्सलेस्सं अहे पक् सपडिदिसिं आवरेमाणे चिट्ठति तयाणं मणुस्तलोगे मस्तावदंति एवं खलु राहु । चंदेवा सूरेवा घत्थे एवं कति || 90 || สเ हु आवरण कर पास से होकर जाते तव मनुष्य लोक में मनुष्यों कहते हैं कि चंद्र सूर्य की कुक्षि राहुने { भेदी. अर्थात् राहु के अंदर में चंद्र सूर्य गया. ऐसे ही राहु जाते. आते, दुर्वणा करते अथवा परिचारणा चंद्र अथवा सूर्य की देखा हो आवरण कर पीछा नीकलत मनुष्यलोक में मनुष्यों कहते हैं कि राहुने चंद्र सूर्य का मन किया. ऐसे ही जब राहु देवता जाते आते विकुर्वणा करते या परिचारणा करते {चंद्र अथवा सूर्य की लेश्या को चारों दिशा में ढककर रहता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैं राहुने अथवा सूर्य का ग्रहण किया अर्थात् खग्रास हुवा. ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! राहु के कितने भेद कहे Jain Education International For Personal & Private Use Only • प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रमादजी ० ४०२ www.jainelibrary.org

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