Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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कार्थ
बदकाचारी मुनि श्री अमोलक अपनी
|| नवम प्राभृतम् ॥
तयाण
ताकति कट्ठे ते सरिए पोरिसी च्छायं णिवतेति आहितेति वदेजा? तस्थ खलु इमातों तिरंग पडिवतीआ पण्णत्ताओ संजहा-तत्थ एगे एक महंसु ता जेणं पांगला मूरियसले फूति ते पोगला तपति ते पग्गला सतप्यमाणा, तराइ बाहिराति पांगला सदावनिति, एमण से समिते नावखत एग एवं माई ? || || एगे पूरा एत्र माहं तर जे पगला मूरियस कुतते योगाला नो सतप्पत्ति, ते पांगला अनंनष्यमाणे तताणतराई वाहिराति पोग्गलति नी संतावति, एसणं से समितं तावखते एमएच माहंसु ॥ २ ॥ एगंपू एवं माहस जेण
अब नववे पाहुडे में पुरुष छायाँ ( पौरुष ) का प्रमाण कहते हैं. अहो भगवन् ! आप के मन में कितन प्रमाण में पुरुष छाँया होती है ? अहो शिष्य ? इस मे अन्तर्थी की प्ररूपणारूप तीन पांडवृत्तियों कहा है. जिन में एक ऐसा कहन हैं जितने पुल सूर्य की लेया के कार्शन है वे पुट्रल सूर्य की लक्ष्या से सकते हैं. सूर्य की लक्ष्या से तपते हुने पो बाहिर के पुल तपास हैं. यह सांमत मर्यादापना में उत्पन्न हुवा तापक्षेत्र है २ किनने ऐसा कहते हैं कि जो पुगल सूर्य का लेख्या को सर्शते हैं वे पहल नहीं तपते हैं-ऊष्ण नहीं होते हैं परंतु पीठफलगगन पुद्गल का सूर्य सायमंत्र रूप से सूर्य ताप लेश्या करे नहीं स बहिर के पुल तपाये नहीं. यह समित मर्यादा पर्ने हुदा ताम क्षेत्र जानना कितनेक ऐसा
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● बकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी
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