Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari

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Page 405
________________ 48 अनुवादक चालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक संपरिक्खिवित्ताणं चिट्ठति, ता लवणं समद्दे किं समयकाल संठिते बिसम चकवाल सठित?ता सम चक्काल संठिते नोबिसम चक्कबाल सठिते, ता लबणेणं समुद्दे केवलियं चकवाल विक्खमेणं केवतियं परिक्त्रेणं आहितति वदेजा ? ता दोय जोयण सय सहस्सातिं चक्कवालविक्खंभेण पण्णरस जोयण सबसहस्नाति एक्कासी च सहस्त गत उगालसिं जाय गए किंचि विसेसूणा पक्खेत्रेण ॥ ता लत्रणणं समुद्दे चतरि चंदावा जाव ताराता ॥ ३ ॥ ता लवण समुद्दे घायति संड णावं दीये लवण समुद्र गोल वर्तुलाकार चुड़ी के संस्थान से संस्थित है. सत्र चारों तरफ परिधि मे अहो भगवन् ! यह लक्षण समुद्र क्या सम बाल संस्थानकाला है या न चल संस्थावला है ? अहां गौतम ! यह लवण समुद्र सम चकालस्थत है परंतु भगवन् ! यह लवण समुद्र कितना चक्राकार चौडाइ में है और हु लाख योजन चक्रवाल में चौडइ है और इस की परिधि १५८११३२ योजन में कुछ न्यून हैइस लवण समुद्र में चार चंद्रने प्रकाश किया, प्रकाश करते हैं व प्रकाश करेंगे यावत् तारा पर्यंत कहना. अर्थात् ४ चंद्र, ४ सूर्य, ३५२ ग्रह, ११२ नक्षत्र और २६७४०० क्रोडाकड ताराओं का जानना ॥ ३ ॥ चारों तरफ वर्तुलाकार 'संस्थानवाला लण समुद्र की घातकी खंड Jain Education International For Personal & Private Use Only चक्रवाल संस्थित नहीं है. अह है ? अहो ! यावत् । :काशक- राजाबहादर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी ● ३९० www.jainelibrary.org

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