Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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-नक्खता जेणं णक्खता सया चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणविपमपि जोयं ओएति॥३॥" अत्थि गक्खत्ता जेणं चंदस्स दाहिणेणवि पमपि जोगं जोएति ॥ ४ ॥ अत्थिण
क्वत्ता जेणं णक्वन्सा चंदस्स सया पमह जोग जोएति ॥ ५॥ ता एएसिणं अट्ठाविसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जण सया चंदस्स दाहिणेण जोगं जोएति तहेव
जाव कयरे मक्खत्ता जेणं सया चदस्स पमहं जोगं जोएति ? एतेसिणं अट्राविसाए मंडल उपर होवे उस की विधि धनाते हैं. इस में प्रथम विकंप क्षेत्र की प्ररूपणा करते हैं. सूर्य का विकप
क्षत्र ५१० योजन का हैं. अब सूर्य एक २ अहोरात्रि में दो योजन व एकसठिये ४८ भाग विकंप Eक्षेष माप्त करे. इस तरह १८३वी अहोरात्र में कितने योजन प्राप्त कर ? इस मे तीन राशि की स्थापना
करना. एक अहोरात्र के विकंप के ६.ये माग करने के लिये दो योजन को ६१ ये से गुणाकार काना. जिम में १२२ होवे. इसमें ४८ मिलानेसे १७० होवे. ६१।१७०११८३ यों तीन धुवराशि हुई. यहां दूसरी राशि को नीसरी राशि में गुणाकार करके प्रथम राशे से भाग देना, और जो आ इतने योजन जानना. १७०x१८३३१११०+६१२१. योजन होवे. यह सूर्य का विकंप क्षेत्र हुवा. अब चंद्र का विकंप
क्षेत्र कहते हैं चंद्रमा को तीर्छ क्षेत्र ५१० योजन ६. ये ४८ भाग का है. इस में चंद्रमा के १५ मेडल |'चउदह अंतर हैं. १५ मंडल को ५६ से गुनना ८४० होवे, इस के योजन के लिये ६१ का भाग देना
अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमालक ऋापाज
कासक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी .
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