Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
श्री श्री अमोलक ऋगिनी +
पवयंसि ॥९॥ ता लोगणाभिासण पव्वयसि ॥ ता अथिसिणं पध्वयं ॥१॥ ता सुरियावत्तसि पन्वयसि ॥ १२॥ मूरिया चरणमिण पवयंसि ॥ १३ ॥ ता उत्तमंसिणं पश्वयंमि ॥१४॥ता दिमीण पन्धयसि ॥१५॥ ता अवत्त संणं पव्ययंसि ॥ १६ ॥ सा धराणिकखीलंसिणं पश्यसि ॥ १७ ॥ ता धराण. 'सिगंसिणं पव्वयांस ॥ १८ ॥ ता पत्रयंदसिणं पब्वयंसि ॥ १५ ॥ ता पब्वय
रायंसिणं पध्वयंसि ॥ २० ॥ वयं पण एवं व्यामो-ता मदरवि प बञ्चति मेरुवि
पवुच्चति जाव पध्धयरायावि पवुच्चति, ता जेणं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति. तेणं ११. अनिशिता निर्मल जांबुनंद पर्वत से.१२ सूर्यावर्त पर्वत से १३ मर्यावर्ण पर्वत से १४ उत्तम पर्वत १५ दिशी की उत्पत्ति करनेवाला पर्वत से १६ मब में अस्तंसक पर्वत से १७ पृथ्वी में शीला समान
पर्वत से १८ धरणीश्रृंग पर्वत से १९ पर्वतेन्द्र पर्वत से और २० पर्वत राज पर्वत में सूर्य की लेख्या राहणावे. इस कथन को हम इस प्रकार कहते हैं कि मंदर नामक पर्वत यावत् पर्वत राजपर्वत मे सूर्य की
लिश्या हणावे. क्यों कि उक्त २० ही नाम मेरु पर्वत के ही हैं मात्र गुण"निष्पन्न मे पृथक् २ हो गये हैं. जैमे मंदर मापक देवता मालिक होने से
मंदर कहा गया. सब क्षेत्रों के मध्य में होमे से पह कहा गया, यो सब जानना. उक्त मतवाले एकाना
पावा-राजावादुर लालामुखदवसहायत । ज्वालाममारजी।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org