Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] 13 उसका समाधान खोज लेने वाली बुद्धि / (2) वैनयिकी-विनय से प्राप्त होने वाली बुद्धि। (3) कर्मजा--कोई भी कार्य करते-करते, चिरकालीन अभ्यास से जो दक्षता प्राप्त होती है वह कर्मजा, कार्मिकी अथवा कर्मसमुत्था बुद्धि कही जाती है। (4) पारिणामिकी-उम्र के परिपाक से जीवन के विभिन्न अनुभवों से प्राप्त होने वाली वुद्धि। __ मतिज्ञान मूल में दो प्रकार का है---श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित / जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के पूर्वकालिक संस्कार के अाधार से---- निमित्त से उत्पन्न होता है किन्तु वर्तमान में श्रुतनिरपेक्ष होता है, वह श्रुतनिश्रित कहा जाता है / जिसमें श्रुतज्ञान के संस्कार की तनिक भी अपेक्षा नहीं रहती वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहलाता है / उल्लिखित चारों प्रकार की बुद्धियां इसी विभाग के अन्तर्गत हैं / चारों बुद्धियों को सोदाहरण विस्तृत रूप से समझने के लिए नन्दीसूत्र देखना चाहिए / महारानी धारिणी १६--तस्स णं सेणियस्स रणो धारिणीणामं देवी होत्था सुकुमालपाणि-पाया अहीणपंचि दियसरीरा लक्खण-वंजण-गुणोववेया माणम्माण-प्पमाण-सुजाय-सव्वंगसुदरंगी ससिसोमाकार-कंत पियदसणा सुरुवा करयल-परिमित-तिवलिय-वलियमज्झा कोमुइ-रणियर विमल-पडिपुण्ण-सोमवयणा कुडलुल्लिहिय-गंडलेहा, सिंगारागार चारवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव निउण-जुत्तोवयारकुसला पासादोया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा सेणियस्स रण्णो इट्ठा जाव [कंता पिया मणुण्णा मणामा धेज्जा वेसासिया सम्मया बहुमया अणुमया भंडकरंडगसमाणतेल्लकेला इव सुसंगोबिया चेलपेडा इव सुसंपरिगिहीया रयणकरंडगो विव सुसारक्खिया, मा णं सीयं, मा णं उण्हं, मा णं दंसा, मा गं मसगा मा णं वाला, मा णं चोरा, मा गं वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइयविविहा रोगायंका फुसंतु ति कटु सेणिएणं रण्णा सद्धि विउलाई भोगभोगाइं पच्चणुभवमाणी विहरइ / उस श्रेणिक राजा की धारिणी नामक देवी (रानी) थी / उसके हाथ और पैर बहुत सूकुमार थे। उसके शरीर में पाँचों इन्द्रियाँ अहीन, शुभ लक्षणों से सम्पन्न और प्रमाणयुक्त थीं। वह शंख-चक्र आदि शुभ लक्षणों तथा मसा-तिल प्रादि व्यंजनों के गुणों से अथवा लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त थी, माप-तोल और नाप से बरावर थी। उसके सभी अंग सुदंर थे, चन्द्रमा के सदृश सौम्म आकृति वाली, कमनीय, प्रियदर्शना और सुरूपवती थी। उसका मध्यभाग इतना पतला था कि मुट्ठी में पा सकता था, प्रशस्त त्रिवली से युक्त था और उसमें वलि पड़े हुए थे / उसका मुख-मंडल कार्तिकी पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान निर्मल, परिपूर्ण और सौम्य था / उसकी गंडलेखा-कपोल-पत्रवल्ली कुडलों से शोभित थी, उसका सुशोभन वेष शृंगाररस का स्थान-सा प्रतीत होता था, उसकी चाल, हास्य, भाषण, शारीरिक और नेत्रों की चेष्टाएं-सभी कुछ संगत था। वह पारस्परिक वार्तालाप करने में भी निपुण थी / दर्शक के चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय, रूपवती और अतीव रूपवती थी। वह श्रेणिक राजा की वल्लभा थी, यावत् [कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, धैर्य का स्थान, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत अर्थात् अतीव मान्य, आभूषणों तथा वस्त्रों के पिटारे के समान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org