________________ 114] [ ज्ञाताधर्मकथा वेसमणपडिमाण य आलोए पणामं करेइ, ईसि पच्चुन्नमइ / पच्चुन्नमित्ता लोमहत्थगं परामुसइ / परामुसित्ता नागपडिमाओ य जाव वेसमणपडिमाओ य लोमहत्थेणं पमज्जइ, उदगधाराए अब्भुक्खेइ / अभुक्खित्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई लहेइ / लूहित्ता महरिहं वत्थारुहणं च मल्लारुहणं च गंधारहणं च चुन्नारुहणं च वन्नारुणं च करेइ / करिता धूवं डहइ, डहित्ता जाणुपायवडिया पंजलिउडा एवं वयासी-'जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव अणुवढेमि त्ति कट्ट उवाइयं करेइ, करिता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता विपुलं असणपाणखाइमसाइमं आसाएमाणी जाव (विसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुजेमाणी एवं च णं) विहरइ / जिमिया जाव (भुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा परम-) सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया। तत्पश्चात् वह भद्रा सार्थवाही धन्य सार्थवाह से अनुमति प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लितहृदय होकर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराती है। तैयार कराकर बहुत-से गंध, वस्त्र, माला और अलंकारों को ग्रहण करती है और फिर अपने घर से बाहर निकलती है / राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर निकलती है। निकलकर जहाँ पुष्करिणी थी, वहीं पहुंचती है। वहां पहुँच कर उसने पुष्करिणी के किनारे बहुत से पुष्प, गंध, वस्त्र, मालाएँ और अलंकार रख दिए / रख कर पुष्करिणी में प्रवेश किया, जलमज्जन किया, जलक्रीडा की, स्नान किया और बलिकर्म किया। तत्पश्चात् अोढ़ने-पहनने के दोनों गीले वस्त्र धारण किये हुए भद्रा सार्थवाही ने वहाँ जो उत्पल-कमल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुडरीक, महापुडरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र-कमल थे उन सबको ग्रहण किया। फिर पुष्करिणी से बाहर निकली। निकल कर पहले रक्खे हुए बहुत-से पुष्प, गंध माला आदि लिए और उन्हें लेकर जहाँ नागागृह था यावत् वैश्रमणगृह था, वहाँ पहुँची। पहुँच कर उनमें स्थित नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमा पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें नमस्कार किया। कुछ नीचे झुकी। मोर-पिच्छी लेकर उससे नाग-प्रतिमा यावत् वैश्रमणप्रतिमा का प्रमार्जन किया। जल की धार छोड़कर अभिषेक किया। अभिषेक करके रु एंदार कोमल कषाय-रंग वाले सुगंधित वस्त्र से प्रतिमा के अंग पौंछे। पौंछकर बहुमूल्य वस्त्रों का प्रारोहण किया-वस्त्र पहनाए, पुष्पमाला पहनाई, गंध का लेपन किया, चूर्ण चढ़ाया और शोभाजनक वर्ण का स्थापन किया, यावत् धूप जलाई / तत्पश्चात् घुटने और पैर टेक कर, दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा 'अगर मैं पुत्र या पुत्री को जन्म दूगी तो मैं तुम्हारी याग-पूजा करूगी, यावत् अक्षयनिधि की वृद्धि करूंगी।' इस प्रकार भद्रा सार्थवाही मनौती करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई और विपुल अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम आहार का आस्वादन करती हुई यावत् विचरने लगी। भोजन करने के पश्चात् शुचि होकर अपने घर आ गई। पुत्र-प्राप्ति १६-अदुत्तरं च णं भद्दा सत्थवाही चाउद्दसट्ठमुद्दिडपुन्नमासिणीसु विउलं असण-पाणखाइम-साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडित्ता बहवे नागा य जाव' वेसमणा य उवायमाणी नमसमाणी जाव एवं च णं यिहर। 1. द्वि. अ. सूत्र 12. Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org