________________ 304 ] [ ज्ञाताधर्मकथा सकडक्ख-दिद्वि-निस्ससिय-मलिय-उवललिय-ठिय-गमण-पणय-खिज्जिय-पासादियाणि य सरमाणे रागमोहियमई अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मग्गओ सविलियं / तत्पश्चात् कानों को सुख देने वाले और मन को हरण करने वाले प्राभूषणों के शब्द से तथा उन पूर्वोक्त प्रणययुक्त, सरल और मधुर वचनों से जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया। उसे पहले की अपेक्षा उस पर दुगना राग उत्पन्न हो गया / वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जधन, मुख, हाथ, पैर और नेत्र के लावण्य की, रूप (शरीर के सौन्दर्य) की और यौवन की लक्ष्मी (शोभासुन्दरता) को स्मरण करने लगा। उसके द्वारा हर्ष या उतावली के साथ किये गये आलिंगनों को, विब्बोकों (चेष्टानों) को, विलासों (नेत्र के विकारों) को, विहसित (मुस्कराहट) को, कटाक्षों को, कामक्रीडाजनित निःश्वासों को, स्त्री के इच्छित अंग के मर्दन को, उपललित (विशेष प्रकार को क्रीडा) को, स्थित (गोद में या भवन में बैठने) को, गति को, प्रणय-कोप को तथा प्रसादित (कुपित को रिझाने) को स्मरण करते हुए जिनरक्षित की मति राग से मोहित हो गई। वह विवश हो गया--अपने पर सका, कर्म के अधीन हो गया और वह लज्जा के साथ पीछे की ओर उसके मुख की तरफ देखने लगा। ५७-तए णं जिणरक्खियं समुप्पन्नकलुणभावं मच्च-गलथल्ल-जोल्लियमई अवयक्खंतं तहेव जक्खे उ सेलए जाणिऊण सणियं सणियं उम्विहइ नियगपिट्टाहि विगयसत्थं / तत्पश्चात् जिनरक्षित को देवी पर अनुराग उत्पन्न हुआ, अतएव मत्यु रूपी राक्षस ने उसके गले में हाथ डालकर उसकी मति फेर दी, अर्थात् उसकी बुद्धि मृत्यु की तरफ जाने की हो गई / उसने देवी की ओर देखा, यह बात शैलक यक्ष ने अवधिज्ञान से जान ली और (चित्त की) स्वस्थता से रहित उसको धीरे-धीरे अपनी पीठ से गिरा दिया। विवेचन-देवी ने जिनपालित और जिनरक्षित को पहले कठोर वचनों से और फिर कोमललुभावने वचनों से अपने अनुकूल करने का यत्न किया। कठोर वचन प्रतिकूल उपसर्ग के और कोमल वचन अनुकूल उपसर्ग के द्योतक हैं / कथानक से स्पष्ट है कि मनुष्य प्रतिकूल उपसर्गों को तो प्रायः सरलता से सहन कर लेता है किन्तु अनुकूल उपसर्गों को सहन करना अत्यन्त दुष्कर है। जिनपालित की भाँति दृढमनस्क साधक दोनों प्रकार के उपसर्गों के उपस्थित होने पर भी अपनी प्रतिज्ञा पर अचल-अटल रहते हैं, किन्तु अल्पसत्त्व साधक अनुकूल उपसर्गों के आने पर जिनरक्षित की तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। अतएव साधक को अनुकल उपसर्गों को अतिदुस्सह समझकर उनसे अधिक सतर्क रहना चाहिए। रत्नद्वीप की देवी सम्पूर्ण रूप से विषयान्ध थी। उसके दिल में सार्थवाहपुत्रों के प्रति प्रेमममता की भावना नहीं थी, वह उन्हें मात्र वासनातृप्ति का साधन मानती थी। इससे स्पष्ट है कि वैषयिक अनुराग का सर्वस्व मात्र स्वार्थ है। इसमें दया-ममता नहीं होती, अन्यथा वह जिनरक्षित के. जैसा कि आगे निरूपण किया गया है, तलवार से टकडे-टकडे क्यों करती? उसकी स्वार्थान्धता और क्रूरता इन और अगले पाठ से स्पष्ट हो जाती है / विषयवासना की अनर्थकारिता का यह स्पष्ट उदाहरण है। 1. पाठान्तर-विगयसहो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org