Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 344 ] [ज्ञाताधर्मकथा महानसशाला ____१६-तए णं णंदे मणियारसेट्ठी दाहिणिल्ले वणसंडे एगं महं महाणससालं कारावेइ, अणेगखंभसयसन्निविट्ठे जाव पडिरूवं / तत्थ णं बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेंति, बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगाणं परिभाएमाणा परिभाएमाणा विहरंति। / तत्पश्चात् नंद मणिकार सेठ ने दक्षिण तरफ के वनखंड में एक बड़ी महानसशाला (भोजनशाला) बनवाई। वह भी अनेक सैकड़ों खंभों वाली यावत् प्रतिरूप (अत्यन्त सुन्दर) थी / वहाँ भी बहुत-से लोग जीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गये थे। वे विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार पकाते थे और बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, दरिद्रों और भिखारियों को देते रहते थे। चिकित्साशाला १७-तए णं णंदे मणियारसेट्ठी पच्चथिमिल्ले वणसंडे एगं महं तेगिच्छियसालं कारेइ, अणेगखंभसयसन्निविठं जाव पडिरूवं / तत्थ णं बहवे वेज्जा य, वेज्जपुत्ता य, जाणुया य, जाणुयपुत्ता य, कुसला य, कुसलपुत्ता य, दिनभइभत्तवेयणा बहूणं वाहियाणं, गिलाणाण य, रोगियाण य, दुब्बलाण य, तेइच्छं करेमाणा विहरंति / अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा तेसिं बहूणं वाहियाणं य रोगियाणं य, गिलाणाण य, दुब्बलाण य ओसह-भेसज्ज-भत्त-पाणेणं पडियारकम्मं करेमाणा विहरति / तत्पश्चात् नन्द मणिकार सेठ ने पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक विशाल चिकित्साशाला (औषधालय) बनवाई। वह भी अनेक सौ खंभों वाली यावत् मनोहर थी / उस चिकित्साशाला में बहुत-से वैद्य, वैद्यपूत्र, ज्ञायक (वैद्यक शास्त्र न पढ़ने पर भी अनुभव के आधार से चिकित्सा करने वाले अनुभवी), ज्ञायकपुत्र, कुशल (अपने तर्क से ही चिकित्सा के ज्ञाता) और कुशलपुत्र आजीविका, भोजन और वेतन पर नियुक्त किये हुए थे। वे बहुत-से व्याधितों (शोक आदि से उत्पन्न चित्त-पीड़ा से पीड़ितों) की, ग्लानों (अशक्तों) की, रोगियों (ज्वर आदि से ग्रस्तों) की और दुर्वलों की चिकित्सा करते रहते थे। उस चिकित्साशाला में दूसरे भी बहुत-से लोग आजीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गए थे। वे उन व्याधितों, रोगियों, ग्लानों और दुर्बलों की औषध (एक द्रव्य रूप), भेषज (अनेक द्रव्यों से बनी दवा), भोजन और पानी से सेवा-शुश्रूसा करते थे / अलंकारसभा १८-तए णं णंदे मणियारसेद्वी उत्तरिल्ले वणसंडे एगं महं अलंकारियसभं कारेइ, अणेगखंभसयसन्निविट्ठे जाव पडिरूवं / तत्थ णं बहवे अलंकारियपुरिसा दिन्नभइ-भत्त-वेयणा बहूणं समणाण य, अणाहाण य, गिलाणाण य, रोगियाण य, दुब्बलाण य अलंकारियकम्मं करेमाणा करेमाणा विहरंति / तत्पश्चात् नंद मणियार सेठ ने उत्तर दिशा के वनखण्ड में एक बड़ी अलंकारसभा (हजामत आदि की सभा) बनवाई। वह भी अनेक सैकड़ों स्तंभों वाली यावत मनोहर थी। उसमें बहत-से प्रालंकारिक पुरुष (शरीर का शृगार आदि करने वाले पुरुष) जीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गये थे। वे बहुत-से श्रमणों, अनाथों, ग्लानों, रोगियों और दुर्बलों का अलंकारकर्म (शरीर की शोभा बढ़ाने के कार्य) करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org