Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [373 ४१–तए णं ते ईसरपभिइओ कणगज्मयं कुमार महया महया रायाभिसेएणं अभिसिचंति / तए णं से कणगज्झए कुमारे राया जाए, महया हिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे, वण्णओ, जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ / तए णं सा पउमावई देवी कणगज्झयं रायं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी'एस णं पुत्ता! तव रज्जे य जाव [रठे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य पुरे य] अंतेउरे य तुमं च तेयलिपुत्तस्स पहावेणं, तं तुमं गं तेयलिपुत्तं अमच्चं आढाहि, परिजाणाहि, सक्कारेहि, सम्भाणेहि, इंतं अब्भुठेहि ठियं पज्जुवासाहि, वच्चंतं पडिसंसाहेहि, अद्धासणेणं उबनिमंतेहि, भोगं च से अणुवढेहि / तत्पश्चात् उन ईश्वर आदि ने कनकध्वज कुमार का महान्-महान् राज्याभिषेक किया / अब कनकध्वज कुमार राजा हो गया महाहिमवान् और मलय पर्वत के समान इत्यादि राजा का वर्णन (औपपातिक सूत्र के अनुसार) यहाँ कहना चाहिए / यावत् वह राज्य का पालन करता हुआ विचरने लगा। / उस समय पद्मावती देवी ने कनकध्वज राजा को बुलाया और बुलाकर कहा-पुत्र ! तुम्हारा यह राज्य यावत् (राष्ट्र, बल-सैन्य, वाहन-हस्ती अश्व श्रादि, कोष, कोठार, पुर और) अन्तःपूर तुम्हें तेतलिपुत्र की कृपा से प्राप्त हए हैं। यहाँ तक कि स्वयं त भी तेतलिपत्र के ही प्रभाव से राजा बना है / अतएव तू तेतलिपुत्र अमात्य का आदर करना, उन्हें अपना हितैषी जानना, उनका सत्कार करना, सन्मान करना, उन्हें आते देख कर खड़े होना, आकर खड़े होने पर उनकी उपासना करना, उनके जाने पर पीछे-पीछे जाना, बोलने पर वचनों की प्रशंसा करना, उन्हें आधे पासन पर बिठलाना और उनके भोग की (वेतन तथा जागीर आदि की) वृद्धि करना। ४२--तए णं से कणगज्झए पउमावईए देवीए तह त्ति पडिसुणेइ, जाव' भोगं च से वड्ढेइ / तत्पश्चात् कनकध्वज ने पद्मावती देवी के कथन को बहुत अच्छा कहकर अंगीकार किया। यावत् वह पद्मावती के आदेशानुसार तेतलिपुत्र का सत्कार-सन्मान करने लगा। उसने उसके भोग (वेतन-जागीर आदि) की वृद्धि कर दी। ४३--तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अभिक्खणं अभिक्खणं केवलिपन्नते धम्मे संबोहेइ, नो चेवणं से तेयलिपुत्ते संबुज्झइ / तए णं तस्स पोट्टिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था'एवं खलु कणगाए राया तेयलिपुत्तं आढाइ, जाव भोगं च संवड्ढेइ तए णं से तेयलिपुत्ते अभिक्खणं अभिवखणं संबोहिज्जमाणे विधम्मे नो संबुज्झइ, तं सेयं खलु कणगज्मयं तेयलिपुत्ताओ बिप्परिणामित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कणगज्झयं तेयलिपुत्ताओ विप्परिणामेइ / उधर पोट्रिल देव ने तेतलिपुत्र को बार-बार केवलि-प्ररूपित धर्म का प्रतिबोध दिया परन्तु तेतलिपुत्र को प्रतिबोध हुआ ही नहीं। तब पोट्टिल देव को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ'कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र का प्रादर करता है, यावत् उसका भोग बढ़ा दिया है, इस कारण तेतलिपुत्र बार-बार प्रतिबोध देने पर भी धर्म में प्रतिबुद्ध नहीं होता। अतएव यह उचित होगा 1. अ. 14 सूत्र 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org