Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 424] [ ज्ञाताधर्मकथा मध्य भाग से होकर निकला / वहाँ से निकल कर पंचाल देश के मध्य भाग में होकर देश की सीमा पर आया। फिर सुराष्ट्र जनपद के बीच में होकर जिधर द्वारवती नगरी थी, उधर चला / चलकर द्वारवती नगरी के मध्य में प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ कृष्ण वासुदेव को बाहरी सभा थी, वहाँ आया। चार घंटानों वाले अश्वरथ को रोका। रथ से नीचे उतरा / फिर मनुष्यों के समूह से परिवत होकर पैदल चलता हुया कृष्ण वासुदेव के पास पहुँचा / वहाँ पहुँच कर कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को यावत् महासेन आदि छप्पन हजार बलवान् वर्ग को दोनों हाथ जोड़ कर द्रुपद राजा के कथनानुसार अभिनन्दन करके यावत् स्वयंवर में पधारने का निमंत्रण दिया / ९०-तए णं से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयस्स अंतिए एयमद्रं सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियए तं दूयं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ / ' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव उस दूत से यह वृत्तान्त सुनकर और समझकर प्रसन्न हुए, यावत् वे हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए / उन्होंने उस दूत का सत्कार किया, सन्मान किया / सत्कार-सन्मान करने के पश्चात् उसे विदा किया / स्वयंवर के लिए कृष्ण का प्रस्थान ९१-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरि तालेहि / ' तए णं से कोडुबियपुरिसे करयल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सामुदाइयं भेरि महया महया सद्दे णं तालेइ / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुष को बुलाया / बुला कर उससे कहा-'देवानुप्रिय ! जागो और सुधर्मा सभा में रखी हुई सामुदानिक भेरी बजायो।' तब उस कौटुम्बिक पुरुष ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कृष्ण वासुदेव के इस अर्थ को अंगीकार किया। अंगीकार करके जहाँ सुधर्मा सभा में सामुदानिक भेरी थी, वहाँ आया / आकर जोर-जोर के शब्द से उसे ताड़न किया। ९२-तए णं ताए सामुदाइयाए भेरीए तालियाए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ व्हाया जाव' विभूसिया जहाविभव-इडि-सक्कारसमुदएणं अप्पेगइया जाव [हयगया एवं गयगया रह-सोया-संदमाणीगया अप्पेगइया] पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं वद्धाति / तत्पश्चात् उस सामुदानिक भेरी के ताडन करने पर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् न ग्रादि छप्पन हजार बलवान नहा-धोकर यावत विभषित होकर अपने-अपने वैभव के अनसार ऋद्धि एवं सत्कार के अनुसार कोई-कोई [ अश्व पर आरूढ होकर, कोई-कोई हाथी पर, 1. अ. 16 सूत्र 89 2. अ. 16 सूत्र 86 ---- --- - -. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org